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अपन्यास, संन्यास और विन्यास
स्वर सात हैं — षड़ज, ऋषभ, गान्धार, माध्यम, पञ्चम, धैवत और निषाद | इन्हें संक्षेप में स, रि, ग, म, प, ध, नी कहा जाता है । अंग्रेजी में क्रमश: Do, Re, Mi, Fa, So, Ka, Si, कहते हैं और इनके सांकेतिक चिह्न क्रमश: C, D, E, F, G, A, B हैं। सात स्वरों की व्याख्या इस प्रकार है
१. षड्ज -- नासा, कंठ, छाती, तालु, जिह्वा और दन्त इन छह स्थानों से उत्पन्न होने वाले इस स्वर को षड्ज कहा जाता है ।
२. ऋषभ - नाभि से उठा हुआ वायु कंठ और शिर से आहत होकर वृषभ की तरह गर्जन करता है, उसे ऋषभ कहा जाता है । ३. गान्धार - नाभि से उठा हुआ वायु कण्ठ और शिर से आहत होकर व्यक्त होता है और इसमें एक विशेष प्रकार की गन्ध होती है, इसलिए इसे गान्धार कहा जाता है । ४. मध्यम नाभि से उठा हुआ वायु
वक्ष और हृदय में आहत होकर फिर नाभि में जाता है । यह काया के मध्यभाग में उत्पन्न होता है है, इसलिए इसे मध्यम स्वर कहा जाता है ।
५. पंचम - नाभि से उठा हुआ वायु वक्ष, हृदय कंठ और सिर से आहत होकर व्यक्त होता है । यह पांच स्थानों से उत्पन्न होता है, इसलिए इसे पंचम स्वर कहा जाता है ।
६. धैवत -- यह पूर्वोत्थित स्वरों का अनुसंधान करता है, इसलिए इसे धैवत कहा जाता है ।
७. निषाद - इसमें सब स्वर निषण्ण होते हैं इससे सब अभिभूत होते हैं, इसलिए इसे निषाद कहा जाता है । '
बौद्ध परम्परा में सात स्वरों के नाम ये हैं— सहर्ष्या, ऋषभ, गांधार, धैवत, निषाद, मध्यम तथा कैशिक । "
स्वर-स्थान स्वर के उपकारी विशेषता प्रदान करने वाले स्थान को स्वर स्थान कहा जाता है । जिस स्वर की उत्पत्ति में जिस स्थान का व्यापार प्रधान होता है, उसे उसी स्वर का स्थान कहा जाता है । स्थानांग में सात स्वरों के सात स्थान वर्णित हैं - १. षड्ज का स्थान जिह्वा का अग्रभाग २. ऋषभ का वक्ष ३. गांधार का कण्ठ ४. मध्यम का जिह्वा का मध्य भाग, ५. पंचम का नासा ६. धैवत का दांत और होठ का संयोग ७. और निषाद का मूर्धा सिर ।"
नारदीय शिक्षा में ये स्वर स्थान कुछ भिन्न प्रकार से उल्लिखित हुए हैं षड्ज कंठ से उत्पन्न होता हैं, ऋषभ सिर से, गान्धार नासिका से मध्यम उर से, पंचम उर, सिर तथा कंठ से, धैवत ललाट से तथा निषाद
खण्ड १९, अंक ४
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