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का समावेश है । नाट्यशास्त्र के अनुसार गीत नाटक के प्रमुख अङ्गों में से अन्यतम है, तथा वादन एवं नर्तन-दोनों उसके अनुगामी हैं। भारतीय परंपरा के अनुसार नटराज शिव नृत्यकला के आदि स्रोत हैं । तथा भगवती सरस्वती गीत तथा वाद्यकला की प्रवर्तिका हैं ।
संगीत अपने आपमें एक स्वतंत्र और सौन्दर्य पूर्ण कला है । संगीत का शाश्वत मूल्य स्वरों का सौन्दर्य है तथा यही संगीत का लक्ष्य है। ध्वनि या नाद स्वर का सामान्य अर्थ है । संगीत के स्वर भौतिक जगत् से परे हैं क्योंकि संगीत के मूलाधार स्वर व लय प्रकृति में व्याप्त हैं। जहां चेतना है, वहां गति है, वहीं स्वर भी है परन्तु ये गुण गोपित होते हैं। इन्हें संगीत व्यक्त बनाता है, प्रकट करता है। स्वरों के सौन्दर्य को ज्यादा शक्तिशाली बनाना, भावप्रवण बनाना यह शक्ति संगीत में है । स्वर को संगीत में परिष्कृत रूप प्राप्त होता है ।।
भारतीय स्थापत्य कला तथा शिल्प के ऐतिहासिक अनुशीलन के लिए जैन साहित्य जितना उपादेय है, उतना ही भारतीय संगीत के लिए भी है। ठाणांग, रायपसेणीय सुत्त तथा कल्पसूत्र में संगीत संबंधी प्रचुर सामग्री पायी जाती है। यहां विवेच्य विषय स्थानाग सूत्र में प्ररूपित भारतीय संगीत विद्या का उपस्थापन करना है। स्थानांग में स्वर, स्वर स्थान, गीत, गीत के गुण दोष, वाद्य, मूछना आदि गान्धर्व-विषयों का सूत्र बद्ध विवरण पाया जाता है । जैन साहित्य आगम तथा आगमेतर दो भागों में विभक्त है। आगम प्राचीन साहित्य के रूप में जाना जाता है। स्थानांग इसी प्राचीन साहित्य का एक अंग है, जिसमें भगवान महावीर की वाणी को गणधरों ने सूत्र बद्ध किया है। स्थानांग में उपलब्ध स्वर मंडल का क्रमिक उल्लेख प्रस्तुत है
स्वर-संगीत रत्नाकार में संगीत के अर्थ में प्रयुक्त स्वर का अर्थ है-जो ध्वनि अपनी-अपनी श्रुतियों के अनुसार मर्यादित अन्तरों पर स्थित हो, जो स्निग्ध हो, जिसमें मर्यादित कम्पन हो और जो अनायास ही श्रोताओं को आकृष्ट कर लेती हो, उसे स्वर कहा है।
. प्राचीन शास्त्रों के अनुसार सामान्य रूप से चार मुख्य स्वर माने गए हैं। १. वादी स्वर- जिसको स्वरों में राजा के समान अथवा सर्वश्रेष्ठ स्वर माना गया है। २. संवादी स्वर--जिसकी तुलना प्रधान मंत्री से की गई है। ३. अनुवादी- यह स्वर वादी और संवादी स्वरों का मित्र समझा जाता है। ४. विवादी स्वर- यह स्वर एक शत्रु के समान होता है, यह राग के चरित्र और उसके रूप को बिगाड़ता है । इन स्वरों का सही प्रयोग करके ही गायक या वादक अपने रग-प्रदर्शन में पूर्ण सफल होता है । प्राचीन शास्त्रों के अनुसार स्वरों के छह प्रकार और माने गए हैं-ग्रह, अंश, न्यास
तुलसी प्रज्ञा
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