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अतः गाने में बहुत कठिनाईयां आती हैं। इसी दुरुहता के कारण इसका प्रयोग स्वर्ग में होता है ।
प्रत्येक स्वर सात तानों से गाया जाता है ।" तान का अर्थ है - स्वर विस्तार, एक प्रकार की भाषा जनक राग । ग्राम रागों के आलाप - प्रकार भाषा कहलाते हैं । कुछ आचार्यों ने लौकिक विनोद के लिए ग्रामजन्य रागों का प्रयोग निषिद्ध बतलाया है ।'
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मूच्र्छना- इसका अर्थ है - सात स्वरों का क्रमपूर्वक आरोह और
महर्षि भरत ने इसका अर्थ
अवरोह । मूच्र्छना समस्त रागों की जननी है । सात स्वरों का क्रमपूर्वक प्रयोग किया है । यह चार प्रकार की होती है१. पूर्णा २. षाडवा ३. औडुविता ४. साधारणा । ५ स्थानांग सूत्र में षड्ज आदि तीन ग्रामों की सात-सात मूच्र्छनाएं उल्लिखित हैं । ६ भरत नाट्य, संगीत दामोदर, नारदीशिक्षा" आदि ग्रन्थों में भी मूर्च्छनाओं का उल्लेख है । वे भिन्न-भिन्न प्रकार से हैं । निम्मलिखित तालिका से मूर्च्छनाओं के नामों में कितना भेद है, स्पष्ट होता है
स्थानांग सूत्र
नारदीशिक्षा
भरत नाट्य षड्जग्राम की मूर्च्छनाएं
उत्तरमंद्रा
ललिता
रजनी
मध्यमा
चित्रा
मंगी
कौरवीया
हरित्
रजनी
सारकान्ता
सारसी
शुद्धषड़जा
उत्तरमंदा
रजनी
उत्तरा
उत्तरायता
अश्वक्रान्ता
सौवीरा
अभिरुद्गता
नंदी क्षुद्रिका
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उत्तरायता
शुद्धषड्जा
मत्सरीकृता
रोहिणी
मतंगजा
सौवीरा
षण्मध्या
मध्यमग्राम की मूच्र्छनाएं
सौवीरी
अश्वक्रान्ता
अभिरुद्गता
संगीत दामोदर
हरिणाश्वा
कलोपनता
शुद्धमध्या
मार्गी
पौरवी
कृष्यका
शुद्धा
अन्द्रा
कलावती
तीव्रा
पंचमा नंदी
मत्सरी
गान्धार ग्राम की मूच्र्छनाएं
सौद्री
ब्राह्मी
उत्तरमंद्रा
अभिरुद्गता
विशाला
मृदुमध्यमा सुमुखी
चित्रा
चित्रवती
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अश्वक्रान्ता
सौवीरा
ס
हृष्यका
उत्तरायता
रजनी
सुखा
बला
आप्यायनी विश्वचूला
तुलसी प्रज्ञा
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