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चन्द्रा
हेमा
कपर्दिनी
मैत्री
सुष्ठुतर आयाम उत्तरायता कोटिमा
बार्हती
,
नारदी शिक्षा में जो मूर्च्छनाओं का उल्लेख है, उनमें सात का सम्बन्ध देवताओं से सात का पितरों से और सात का ऋषियों से है । शिक्षाकार के अनुसार मध्यम ग्रामीय मूर्च्छनाओं का प्रयोग यक्षों द्वारा, षड्जग्रामीय मूर्च्छनाओं का ऋषियों तथा लौकिक गायकों द्वारा तथा गान्धारग्रामीय मूर्च्छनाओं का प्रयोग गन्धर्वों द्वारा होता है ।
स्थानांग सूत्र में स्वरों की उत्पत्ति, सप्त स्वरों का प्राणियों की ध्वनि से सम्बन्ध, स्वरों का मानव स्वभाव से सम्बन्ध, ग्राम तथा मूर्च्छना के साथ गीत के प्रकार, गीत के गुण-दोष का भी सुन्दर विवेचन उपलब्ध है । गीत- -- स्वर - सन्निवेश, पद, ताल एवं मार्ग - इन चार अंगों से युक्त गान 'गीत' कहलाता है ।" रुदन को गीत की योनि-जाति कहा गया है । " गीत के छह दोष, आठ गुण, तीन वृत्त दो भणितियां होती हैं जो इन्हें जानता है, वही (सुशिक्षित व्यक्ति ही) इन्हें रंगमंच पर गाता है । इस संदर्भ में स्थानांग में उपलब्ध वर्णन प्रस्तुत है
गीत में प्रयुक्त होनेवाली वृत्त - रचना त्रिविध होती है । "
१. सम – जिसमें चारों चरणों के अक्षर समान हो ।
२. अर्धसम – जिसमें पहले और तीसरे तथा दूसरे चौथे चरण के अक्षर समान हों ।
३. सर्वविषम - जिसमें सभी चरणों के अक्षर विषम हों ।
गीत - स्वर तंत्री आदि से संबंधित होकर सात प्रकार का हो जाता है " १. तन्त्रीसम - तंत्री स्वरों के साथ-साथ गाया जाने वाला गीत । २. तालसम - तालवादन के साथ-साथ गाया जाने वाला गीत । दाहिने हाथ से ताली बजाना 'काम्या' है । बाएं हाथ से ताली बजाना 'ताल' और दोनों हाथो से ताली बजाना 'संनिपात' है ३. पादसम - स्वर के अनुकूल निर्मित गेय जाने वाला गीत |
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।
पद के अनुसार गाया
तरका शुद्ध गांधारा
उत्तर गांधारा
गान्धार ग्राम
का
अस्तित्व नहीं माना है ।
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वैष्णवी
खेदरी
सुरा
नादावती
विशाला
४. लयसम--तालक्रिया के अनन्तर ( अगली तालक्रिया से पूर्व तक ) किया जाने वाला विश्राम लय कहलाता है । ३५ वीणा आदि को आहत करने पर जो लय उत्पन्न होती है, उसके अनुसार गाया जाने वाला गीत ।
५. ग्रहसम - वीणा आदि के द्वारा जो स्वर पकड़े, उसी के अनुसार गाया जाने वाला गीत । इसे समग्रह भी कहा जाता हैं । ताल में सम, अतीत
खण्ड १९, अंक ४
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