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के विस्तार-विकास की प्रेरणा का बहुत कुछ श्रेय जाता हैअष्टमाचार्य पूज्य कालुगणि को। इस काव्य में उनके अनेक बिम्ब मिलते हैं। बालक, वैरागी, मुनि, शिष्य, पदयात्री, आचार्य, गणि, अनुशास्ता, वेदना में समाधिस्थ आदि ।
विक्रम संवत् १९३३ फाल्गुन शुक्ला द्वितीया के दिन एक शिशु का जन्म हुआ। माता-पिता ने जैसे ही उसके मुखमंडल को देखा। देखते ही रह गए क्योंकि कुछ जन्मजात तेज झलक रहा था।
"निलवट नीको अष्टम-शशि सम ___ लोचन युगल चरूड़ो रे।'
बालक कालु जैसे ही अनुपमेय संघनन की सौम्यता व स्थित प्रज्ञा के धनी पंचम आचार्य मघवागणि की छवि देखते हैं, विभोर हो जाते हैं । अपने गुरु का प्रथम दर्शन ही उन्हें अभिभूत बना देता है । गुरु दर्शन से उनकी स्थिति का श्लिष्ट चित्र दर्शनीय है।
"वर वदनारविन्द री आभा, निरख न नयन अघावै ।
शारद शांत शशांक चन्द्रिका, शीतलता सरसावै ।""
गुरु की छवि मन में बसाए बालक कालु बालक वैरागी बन गया और दीक्षा के लिए तैयार हो गया। सज्जित वैरागी का अन्तरंग व बाह्य दोनों व्यक्तित्वों का एक साथ चित्रांकन दृश्य को साकार कर देता है ।
"चपल तुरंगे चढ़िया चंगे, अंगे बसन बखाण, उज्ज्वल रंगे अधिक उमंगे, संगे सकल सुजाण । भूषण भूषित अंग अदूषित, झूसित मनु शुभ झाण, सद्गुण सदन मदन मद मुषित, शम रस पूषित जाण ।""
राम के संसार से विदा ले वैरागी कालु मुनि बन जाता है । गुरु चरणों में मुनि कालु की भावी तेजस्विता का दर्शन अदभुत है।
"स्वाती नखत सुगुरुकर शुक्ति मुक्ताफल निरमाण । हीरो शासन मुकटे मंढियो शौभैला ज्यूं भाण ।।''
गुरु शिष्य का सम्बन्ध भारतीय परम्परा में पूज्य पूजक का सम्बन्ध रहा है। गुरु जब शिष्य के सिर पर अपना वरद-हस्त रख देते हैं उस समय शिष्य के लिए तो मानो संसार में उपलब्ध-अनुपलब्ध समस्त सम्पदाएं एक साथ साकार हो जाती है और शिष्य की शिता भी तभी सार्थक है जब गुरु का हाथ अपने सिर पर रखाने की पात्रता उसमें हो। विनीत शिष्य और उदार चेता गुरु का यह बिम्ब बहुत ही रम्य बन पड़ा है।
'कर सिर धर देवं सीखड़ली, मीठी मनु शाकर सूखड़ली।
खण्ड १९, अंक ४
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