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आचार्य श्री महाप्रज्ञ ने स्पष्ट कहा है कि इन्द्रिय और चित्त का निग्रह, आत्मा से आत्मा का स्पर्श हमें परमात्मा बना देता है
इन्द्रियाणि च संयम्य, कृत्वा चित्तस्य निग्रहम् ।
संस्पृशन्नात्मनात्गानं, परमात्मा भविष्यति ।।" संबोधिकार 'अप्पाणं शरणं गच्छामि'- अर्थात् आत्मा की शरण स्वीकार करने की बात कहते हैं। यह आत्मविश्वास को वृद्धिंगत करने का महत्त्वपूर्ण सूत्र है। अत्मा की शरण समाधिस्थ और द्रष्टा व्यक्ति ही प्राप्त कर सकता है। इस प्रकार "संबोधि' में चहुं ओर आत्मा ही आत्मा का स्वर ध्वनित हो रहा है
__ आत्मस्थित आत्महित आत्मयोगी ततो भव ।
आत्मपराक्रमो नित्यं, ध्यानलीनः स्थिराशयः ।।३९
संदर्भ: १. वाचस्पत्यम् कोश, भा० ६, पृ० ५२७८ २. शब्दकल्पद्रुम कोश, भाग ५, पृ० ३२८ ३. ईशावास्यवृत्ति, पृ० ५७ ४. तान्त्रिक वाङमय में शाक्तदृष्टि, पृ० ७२ ५. वह, वही ६. वही, पृ० ८० ७. वही, पृ० ८१ ८. ईशावास्यवृत्ति, पृ० ५६ ९. वही, पृ० ४५ १०. सम्बोधि, अधिकार १४, श्लोक ३, पृ० ३०९ ११. वही, पृ० ३१ १२. वही, वही १३. वही, पृ० २७ १४. वही, अ० २, श्लो० १२, पृ० २७ १५. वही, २।१३, पृ० २७ १६. वही, पृ० २८ १७. वही, २११९, पृ० ३१ १८. वही, २।१४, पृ० २८ १९. वही, पृ० २८ २०. वही, २११६, पृ० २१. वही, पृ० २९
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तुलसी प्रज्ञा
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