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नींद से मूंदी हुई आंखों में भी चारों ओर विमल ज्योति प्रस्फुटित हो रही है । सुषुप्त चित्त में भी सदा विपुल शक्ति प्रभासित होती है । मूक शब्दों में भी भावों का गहन समुद्र तैर रहा है । इन तथ्यों को सामान्य सहसा कैसे जान सकता है ?
तस्संधयार दिवसे वि अत्थि, निरिक्खिओ जेण महं न अप्पा | ओ वि तस्सत्थि महं पगासो, निरिक्खिओ जेण मह णिअप्पा ॥२
अर्थात् जिसने महान् आत्मा का निरीक्षण नहीं किया है, उसके लिए दिन में भी अन्धकार है और जिसने अपनी महान् आत्मा का निरीक्षण किया है उसके लिए रात में भी महान् प्रकाश है । जिसके पास अपना प्रभु विद्यमान है, वह व्यक्ति कभी भी दूसरे के आश्रित नहीं होता । जिसने अपने प्रभु को नहीं पाया, वह दूसरे को देखकर रुष्ट या तुष्ट होता रहता है आवश्यकता है व्यक्ति में प्रभु के प्रति अटूट आस्था हो, समर्पण हो । गीता में भगवत् समर्पण पर बहुत बल दिया गया है। वहां कहा गया है कि प्रत्येक प्रवृत्ति भगवान् को समर्पित कर दो । 'सम्बोधि' में आत्म-समर्पण को मुख्यता दी हैं । जो साधक आत्मा को केन्द्र मानकर प्रवृत्त होता है, वह लक्ष्य तक पहुंच जाता है ।
जब अर्हत् का दिव्य स्वरूप व्यक्ति के भीतर प्रवेश करता है तो सारी स्थिति ही बदल जाती है । कुमुदचन्द्राचार्य ने अपने 'कल्याण- -मन्दिर' नामक स्तोत्र में कहा है - जैसे वन-मयूर के चन्दन-वृक्ष के पास आकर बैठ जाने से ही वृक्ष पर व्याप्त सर्पों का समूह शिथिल हो जाता है । उसी प्रकार भगवान् के भीतर विराजमान होते ही जीव के कठोर कर्मबन्ध क्षणभर में ढीले हो जाते हैं---
हृद्वर्तिनि त्वयि विभो ! शिथिलीभवन्ति, जन्तोः क्षणेन निबिडा अपि कर्मबन्धाः ।
सद्यो भुजंगममया इव मध्यभागमभ्यागते वनशिखंडिनि चन्दनस्य || ३४
महायोगी का स्वरूप
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जिसकी इन्द्रियों का बाह्य पदार्थों में व्यापार नहीं होता वह योगी सहज, निरपेक्ष, निर्विकार और अतीन्द्रिय आनन्द को प्राप्त होता है ।' संबोधिकार के अनुसार
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आत्मलीनो महायोगी, वर्षमात्रेण संयमी । अतिक्रामति सर्वेषां तेजोलेश्यां सुपर्वणाम् ॥
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खण्ड १९, अंक ४
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