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विविक्तशय्याऽसनयन्त्रितानां
मल्पाशनानां दमितेन्द्रियाणाम् । रागो न वा धर्षयते हि चित्तं,
__ पराजितो व्याधिरिवौषधेन । जो एकांत बस्ती में रहने के कारण नियंत्रित हैं, जो कम खाते हैं और जो जितेन्द्रिय हैं उनके मन को रागरूपी शत्रु वैसे पराजित नहीं कर सकता जैसे औषध से शांत हुआ रोग देह को पीड़ित नहीं कर पाता। साधक एकांत वातावरण में मन को साधे और इन्द्रियों को बांधे । मन और इन्द्रियों को साध लेने पर स्वप्न में भी उसका मन चलित नहीं हो पाता। एकांतवास का यह भी अर्थ है कि साधक समूह में रहता हुआ भी अकेला रहे, एकांत में रहे। इसका तात्पर्य यह है कि वह बाह्य वातावरण से प्रभावित न हो और ‘एकोऽहम्' इस मंत्र को आत्मसात् करता हुआ चले । स्थान की एकांतता से भी मन की एकांतता का अधिक महत्त्व है।
___ मनोज्ञेष्वमनोज्ञेषु, स्रोतसां विषयेषु यः ।
न रज्यति न च द्वेष्टि, समाधि सोऽधिगच्छति ।। मनोज्ञ और अमनोज्ञ विषयों में जो राग और द्वेष नहीं करता वह समाधि को प्राप्त होता है। शाश्वतः सत्य में रति होने पर संसार विनश्वर प्रतीत होने लगता है। फिर साधक किससे प्रेम करे और किससे अप्रेम। वह मध्यस्थ हो जाता है। यह मध्यस्थता ही वीतरागता है।" वास्तव में अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियों में भी जाताद्रष्टा भाव की साधना करने वाला साधक ही आगे बढ़ सकता है। ध्यान का अधिकारी
मुक्ति के लिए अन्तर्बोध अपेक्षित है। जिस दिन मनुष्य के अन्तःकरण में यह बोध हो जाता है । उस दिन उसके कदम शाश्वत की दिशा में स्वतः उठने लग जाते हैं। कहा भी है----
ओजश्चित्तं समादाय, ध्यानं यस्य प्रजायते ।
धर्मे स्थितः स्थिरचित्तो, निर्वाणमधिगच्छति ॥२३ जिस व्यक्ति की चेतना का प्रवाह बाह्याभिमुख है, वह ध्यान नहीं कर सकता । जो अपनी चेतना को आत्माभिमुख करता है, वही ध्यान का अधिकारी होता है। मनः शुद्धि और मनः एकाग्रता से आत्मा निर्वाण को प्राप्त करती है । सरलता वह प्रकाशपुंज है, जिसे हम चारों ओर से देख सकते हैं। सरलता चित्तशुद्धि का अनन्य उपाय है। जब तक मन पर अज्ञान, संदेह, माया और स्वार्थ का आवरण रहता है तब तक वह सरल नहीं होता। इन दोषों को दूर करने पर ही व्यक्ति का मन 'खुली पोथी' खंड १९, अंक ४
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