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ईशावास्यवृत्तिकार के शब्दों में
संभूति च विनाशं च यस् तद् वेदोभयं सह । _ विनाशेन मृत्यु तीर्वा संभूत्यामृतमश्नुते ।
जब आत्मज्ञान की उत्कण्ठा होती है तब मनुष्य निरोध के बल से विषय-वशीकाररूप वैराग्य प्राप्त करता है। इतना होने के बाद यह कहा जा सकता है कि साधक मृत्यु को तर गया। आगे विकास के बल से ओतप्रोत विश्व प्रेम कर अक्षय अमृत की निधि को प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार ध्येय के प्रति साधक की गहरी निष्ठा होनी चाहिए । साधक कौन ?
___आचार्य श्री महाप्रज्ञ ने अपनी पुस्तक “संबोधि' में स्पष्ट उल्लेख करते हुए कहा है:
“गृहेऽप्याराधना नास्ति, गृहत्यागेऽपि नास्ति सा ।
आशा येन परित्यक्ता, साधना तस्य जायते ॥" ___ मन आसक्ति का उत्स है। वह ज्यों-ज्यों बहिर्मुख होता है, त्यों-त्यों आसक्ति बढ़ती जाती है। अन्तर्मुख मन आसक्ति का पार पा लेता है। जब मन आत्मा से सम्पर्क साध लेता है, तब बाह्य विषयों के प्रति आसक्ति मिट जाती है।
कामनाओं का उत्स है मोह । मोह की सघनता से कामनाएं बढ़ती हैं । ज्यों-ज्यों मोह क्षीण होता है, कामनाएं क्षीण होती जाती हैं। वीतराग में मोह का पूर्ण विलय हो जाता है। अतः वे कामनाओं से मुक्त होते हैं।" प्रश्न उठता है, मोह का उन्मूलन कैसे हो ? समाधान की भाषा में मोहविलय के अनेक साधन बताए गए । उनमें पहला साधन है—आहार-विजय । खाद्य संयम के तीन पहलू हैं---
१. खाने के पदार्थों की संख्या में कमी करना । २. अति-आहार का वर्जन करना। ३. कामोद्दीपक पदार्थों के सेवन का वर्जन करना ।१४
इन्द्रिय-संयम और आहार-संयम का घनिष्ठ संबंध है। आहारसंयम से इन्द्रिय-संयम फलित होता है ।१५ योगी को सदा सूक्ष्म आहार करना चाहिए। सूक्ष्म-आहार से इन्द्रियां शांत रहती हैं। इन्द्रियों की प्रशांत अवस्था में मन की एकाग्रता सधती है ।" इन्द्रियां केवल विषयों को ग्रहण करती हैं। विषयों के प्रति मनोज्ञता या अमनोज्ञता पदार्थों में नहीं, मन की आसक्ति में निहित है। जिस व्यक्ति में आसक्ति कम है वह पदार्थों का भोग करता हुआ भी कर्मों से नहीं बंधता ।" इसी बात को पुष्ट करते हुए संबोधिकार कह रहे हैं---
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तुलसी प्रज्ञा
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