________________
आचार्य श्री महाप्रज्ञ का साधना दर्शन
समणी स्थितप्रज्ञा
भारतीय संस्कृति अध्यात्म से अनुप्राणित रही है। अध्यात्म विकास का सोपान है साधना। साधना के ऋमिक विकास से ही व्यक्ति आत्मसाक्षात्कार की भूमिका तक पहुंच सकता है। साधना के बारे में विश्लेषण करने से पूर्व हमें साधना शब्द के हार्द को समझना होगा। साधना का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ
__ वाचस्पत्यम् कोश में कहा गया है-साधन-सिध-णिच-साधादेशे यथायथं करणे भावे ल्युट् कर्तरि ल्यु वा। साधनाऽपि उपासनायां निष्पादनायाञ्च ॥
इसी को सिद्ध करते हुए शब्दकल्पद्रुम में कहा गया है
साधना, 'साध+णिच् +युच+टाप्' सिद्धिः । निष्पादना। इति साध धात्वर्थदर्शनात् । आराधना । भान्तसाधधातोरनप्रत्ययनिष्पन्ना।' अर्थात् साध धातु णिच युच् और टाप् करने पर निष्पादना, आराधना, उपासना, संराधन प्रसादन आदि अर्थों में साधना शब्द की सिद्धि होती है। राध-साध-संसिद्धौ धातु से भाव और करण में ल्युट् प्रत्यय एवं स्त्रीलिंग में टाप् प्रत्यय करने पर भी साधना शब्द निष्पन्न होता है । साधना का स्वरूप
__ संकल्प जीव है। निःसंकल्प शिव है। संकल्परहित भाव साधना है। साधना मात्र ही शक्ति की आराधना है। समस्त सिद्धियां शक्ति सापेक्ष हैं।' शक्ति साधना का मूलसूत्र है नादानुसन्धान अथवा शब्द का ऋमिक उच्चारण । बिन्दु या कुण्डलिनी विक्षुब्ध होकर नाद का विकास करती है ।' नाद चैतन्य का अभिव्यंजक है, अतः उस अवस्था में चित् शक्ति क्रमशः अधिकतर स्पष्ट हो जाती है । जिस स्थान में नाद का लय होता है, ब्रह्मरन्ध्र वही स्थान है। इसके बाद साक्षात् चित्-शक्ति का आविर्भाव होता है। साधनों की पवित्र व्याकुलता बताते हुए कहा है
माझे नामरूप लोपो असतेपण हारपो ।८
खंड १९, अंक ४
३६७
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org