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श्रुति सुणतां पावं प्रीतड़ली, सौभाग्य घड़ी, समय-समये शिक्षा उचर,
गुरु- वदन शशि वच अमिय भरें,
कालू दिल कमल विकास वरै ।"
मुनि चर्या का बीहड़ मार्ग और कोमल वय में शिशु मुनि । मुनिचर्या का एक अनिवार्य अंग है - प्रतिलेखन | सर्दी हो या गर्मी, वर्षा हो या आतप दोनों समय विधिवत् प्रतिलेखन तो करना ही है । प्रतिलेखना के लिए राजस्थानी भाषा में शब्द है - पडिलेहण । एक दिन मुनि कालु पडिलेहण कंपकंपी छूट रही थी
कर रहे थे । ठिठुरती सर्दी का समय ।
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पूरे शरीर में
सहज स्वभावोक्ति में साकार होता उसी का एक चित्रांकन -
" एक दिन शिशु पडिलेहण करतो दीठो डाँफर स्यूं ठंठरतो
तरुवर पल्लव ज्यूं थरहरतो ।
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जाड़े में कंपकंपाने वाला यह दृश्य किसी अतीत की घटना का ही नहीं वर्तमान में होने वाली क्रिया का भी सजीव दृश्य प्रस्तुत कर देता है । समय का योग, था । आचार्य मघवा का स्वास्थ्य साथ न दे रहा था । गुरु की वेदना व शिष्य का मुरझाया हुआ हृदय इस शब्दांकन से एक साथ साकार हो जाता है—
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"भारी शरीर, कुरव उठणे री बीमारी उन्हाल री रातां, बा प्यास करारी मुख - थूक सूक रसना करड़ी कांटें सी बणज्या, बेचनी वणी रहें कम बेसी अस्वस्थ अंग मघवा रो रहण लाग्यो शिशु कालू रो कोमल हिरदो कुम्हलायो ।
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अचानक असमय ही गुरु मघवा का स्वर्गारोहण हो गया और सुकुमार
दिल कालू क्षण-क्षण गुरु स्मृतियों में ही लीन हो गए
इसी लीनता से उभरती एक गुरु प्रतिमा"मुखड़े रो बो मुलको पलको,
पल-पल दिब्य दिदार,
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हलको वड़ग्यो भानुड़े रो भी भलको निहार ।
मघवागणि के असामयिक निधन से पीछे की व्यवस्था भी अधर में रह गई । पर संघ ने सामूहिक रूप से आचार्य पर के लिए डालिम मुनि को चुना । मुनि कालू की आंखों को तृप्ति प्रदान करने वाला आचार्य डालगणि का चेहरा बड़ा ही मोहक बन पड़ा है ।
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तुलसी प्रज्ञा
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