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है; अन्तरतम का नहीं। पर सफल काव्य वह है जिसमें कवि अपने प्रतिपाद्य का वस्तुचित्र खींच सके और काव्य चित्रपट की भांति दृश्यमान हो उठे।
राजस्थानी भाषा में तेरापन्थ वर्ण-वृत्तों का साहित्य एक विशद शोध विषय है.-काव्यात्मक अनुभूति का यथार्थ बिम्बन स्वतः एक चमत्कार पैदा कर देता है।
राजस्थानी काव्य जगत् की एक विशद् और अप्रतिम कृति है--- कालुयशोविलास । इसमें अष्टम आचार्य पूज्य कालगणि का जीवन वृत्त खींचा गया है-यह एक आत्म पुरुष; अध्यात्म पुरुष की जीवन यात्रा है, जिसे आत्मपुरुष बन कर ही समझा जा सकता है; आत्मसात् किया जा सकता है, और इस अद्वैत की स्थिति से ही जो कुछ उभरा-वही इस काव्य की अस्मिता
सुन्दर शब्द संयोजना या भाव भाषा की सज्जा में कवि ने अपनी प्रतिभा नहीं समेटी, पर, सहज रूप से ही अर्थानुकूल शब्द की चित्र-विचित्रता बनती गई । भाषा का वैज्ञानिक विधान और छंद वस्तुतः नाद सौन्दर्य को अवसरानुरूप उच्च नम्र, समतल, विस्तृत और सरस बनाने में समर्थ हैं।
एक ओर विवेच्य-महाकाव्य के प्रत्येक पद्य में जहां कवि की विनीत निश्छलता के हस्ताक्षर हैं तो दूसरी ओर काव्य में उभरे सजीव बिम्ब कवि की सशक्त लेखनी के दस्तावेज हैं। यहां शब्द तुलिका से जो अलंकारमय चित्र उभरते हैं, वे निस्सन्देह रूप से नैसर्गिको-प्रतिभा के अनाविल उत्स से सम्भूत हैं। साध्वी-प्रमुखा कनकप्रभाजी के शब्दों में-"एक तराशी हुई आवृत्त प्रतिमा का अनावरण हो रहा है । अथवा शब्दों के आवरण को बंधकर कोई सजीव आकृति बाहिर झांक रही हैं।" जहां शब्दचित्र सजीव हो जाते हैं। वही कमनीयता एवं रमणीयता लास्य करती हैं।
इस प्रतिभा दर्शन की भूमिका को लम्बाने की अपेक्षा शब्द से उभरते चित्रों का सीधा प्रसारण ही यहां काम्य है।
भाव, कला, बुद्धि, शैली, उद्देश्य और चरित्र-चित्रण की अनेक उद्घोषणाएं यहां स्पष्ट होती है। सर्वप्रथम हम कालूयशोविलास में प्राप्त चित्रों का वर्गीकरण स्रोतों के आधार पर करेंगे। उसमें दो वर्ग मुख्य हैं मानवीय और मानवेतर । मानवीय बिम्बों में आचार्यश्री कालु और मुनि तुलसी आदि के बिम्ब परिग्रहीत हैं । मानवेतर बिम्बों के अनेक वर्ग हैं, जिनमें प्रकृतिगत ऋतुओं का वर्णन मुख्य हैं भावगत चित्रण भी भय-हर्ष, चिन्ता आदि के रूपों में व्यक्त हुआ है। मानवीय बिम्ब
आचार्यश्री कालुगणि-इस काव्य की आत्मा हैं। आज तेरापन्थ
तुलसी प्रज्ञा
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