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अवस्थाओं की प्रेक्षा, विषय-स्वरूप की प्रेक्षा व शरीर की प्रेक्षा ।४
काय-प्रेक्षा के अन्तर्गत चैतन्य केन्द्र प्रेक्षा के द्वारा हम अन्तःस्रावी प्रन्थियों के उन स्रावों पर नियंत्रण स्थापित कर सकते हैं, जिनके कारण व्यक्ति में हिंसा, क्रूरता, काम, क्रोध, लोभ आदि निषेधात्मक भाव उत्पन्न होते हैं।
___मन की प्रेक्षा विचारों की अल्पता, तनाव-मुक्ति तथा एकाग्रता-सिद्धि के लिए जरूरी है । और विषय स्वरूप का चितन विषयों के प्रति होने वाली ऐन्द्रयिक चंचलता का निवारण करता है । वस्तुतः इन्द्रिय तृप्ति की इच्छा को त्यागे बिना कोई भी योगी नहीं बन सकता
न ह्यसंन्यस्तसंकल्पो योगी भवति कश्चन । २१ सत्य संधान
दूसरा स्तर होगा कि साधक सत्य का अन्वेषण करे । कहे हुए सत्य को मानकर ही न चले बल्कि स्वयं जाने-..."अप्पणा सच्चमेसेज्जा ।"२६ अनेकान्तात्मक वस्तु स्वरूप को अपनी प्रज्ञा से जानने का प्रयत्न करे । सत्य का अनुसंधान एकाग्र चित से ही सम्भव है । वस्तु-स्थिति की ज्ञप्ति से वैचारिक आग्रह दूर होता है । अहंकार का विलयन सत्य के साक्षात् से सहज संभव है। सत्य की खोने का फलित है संघर्ष, कलह, मानसिक असंतुलन व वैचारिक आग्रह आदि का परिहार व दृष्टिकोण की निर्मलता। धर्म ध्यान
यद्यपि सत्य संधान धर्म-ध्यान का ही अंग है फिर भी प्रस्तुत द्वात्रिशिका में धबध्यान का जो लक्षण निर्दिष्ट है वह कषायस्तम्भन है । प्रांतरिक चिरकालिक दोषों का शोधन इस भूमिका पर अधिकतम संभव है। बन्धन निरोध की इस स्थिति में पहुंचा हुआ साधक लक्ष्य के सर्वोत्तम व सर्वोत्कृष्ट ध्यान शुक्लध्यान में प्रवेश करता है।" शुक्लध्यान
यह ध्यान की चरमावस्था है। शुक्लध्यान में स्थित साधक तीव्रता से शोधन की क्रिया करता है। प्रथम चरण को पारकर द्वितीय चरण में प्रविष्ट साधक केवल विशुद्धि की ओर अग्रसर होता है और तृतीय तथा चतुर्थ चरण में पूर्ण शुद्धि कर स्वस्वरूप में अवस्थित हो जाता है। उसमें निरतिशय ज्ञान ' कैवल्य" प्रकट (उत्पन्न) हो जाता है। इसे सिद्धसेन अभिव्यक्त करते हुए कहते हैं
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तुलसी प्रज्ञा
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