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वृत्ति से संबंधित है । सिद्धसेन दिवाकर ने इसे एकाग्रता मुक्त सचेतन प्रवृत्ति कहा है
प्रदीपध्मानवद्धयानं चेतनावविचेष्टितम् ।२० स्थान
ध्यान की साधना गन्दे व शोरगुल वाले स्थानों पर सम्भव नहीं है । आसन, प्राणायाम के लिए शुद्ध हवादार व प्रकाश वाला स्थान आवश्यक है । ध्यान व समाधि में एकाग्रता अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंच जाती है। ऐसी स्थिति में आसपास के वातावरण में ध्वनि प्रकम्पनों की अधिकता साधक के लिए विघ्न पैदा करने वाली होती है। सिद्धसेन ने इस हेतु निर्दिष्ट किया है कि पवित्र स्थान जिसमें पशु, मच्छर, गन्दगी व ध्यान में बाधा डालने वाले अन्य तत्त्वों का अभाव हो, वही वस्तुतः ध्यान साधना के योग्य स्थल (क्षेत्र) है।
शुची निष्कंटके देशे सम्प्राणवपुर्मना :
स्वस्तिकाद्यासनं कुर्यादेकाग्रसिद्धये ।।" गीता में भी इसी बात की ओर संकेत किया गया है--
_शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमानसमात्मनः।
नात्युच्छ्तिं नातिनीचं चलाजिनकुशोत्तरम् ॥१ अर्थात् योगाभ्यास के लिए एकांत में जाकर भूमि पर क्रमशः कुशा, मृग-छाल तथा मृदु वस्त्र बिछाए। पवित्र स्थान में स्थित ऐसा आसान न तो अधिक ऊंचा हो और न अधिक नीचा। इसके बाद उस पर दृढ़तापूर्वक बैठकर व मन, इन्द्रियों को वश में करके अर्थात् मन व शरीर को स्थिर करके हृदय की शुद्धि के लिए मन की एकाग्रता के साथ योग का अभ्यास करे । विकासक्रम
ध्यान करते हुए साधक कहां तक पहुंचा है इसे जानने के लिए विकास का क्रम होना अत्यावश्यक है । इस दृष्टि से ध्यान द्वात्रिंशिका का अध्ययन करने पर चार सोपान नजर आते हैं । अशुभ परिहार
विकास का क्रम अशुद्धि को दूर करने के साथ प्रारम्भ होता है । व्यक्ति के आचार और व्यवहार को विकृत करने वाली उसकी आंतरिक क्रूरता व क्लेश जनक वृत्तियां हैं। उनका रूपान्तरण ध्यान की प्रथम उपलब्धि है। पतंजलि ने भी अष्टांग योग की साधना से अशुद्धिक्षय और ज्ञान-वृद्धि रूप फलप्राप्ति होती है ऐसा कहा है।
रूपांतरण का उपाय सिद्धसेन ने प्रेक्षा बताया है । मन की विभिन्न
खण्ड १९, अंक ४
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