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आदि मिले हैं और ये सब मिलकर ईस्वी सन् की छठी शताब्दी से लेकर ई० सन् की १६ वीं शताब्दी तक के हैं । विवेच्य निबन्ध में उक्त साक्ष्यों के आधार पर इस गच्छ के इतिहास पर प्रकाश डालने का प्रयास किया गया है । अध्ययन की सुविधा के लिये सर्वप्रथम साहित्यिक साक्ष्यों और तत्पञ्चात् अभिलेखीय साक्ष्यों का विवरण प्रस्तुत है : साहित्यिक साक्ष्य
चन्द्रकुल से सम्बद्ध पर्याप्त संख्या में प्रकाश में आ चुके साहित्यिक साक्ष्यों के दो वर्ग किये जा सकते हैं। प्रथम वर्ग के अन्तर्गत इस कुल एवं गच्छ के मुनिजनों द्वारा प्रणीत कृतियों की प्रशस्तियों को रखा गया है। द्वितीय वर्ग में उक्त गच्छ के विभिन्न मुनिजनों के उपदेश से श्रावकों द्वारा लिखवाई गयी या स्वयं मुनियों द्वारा ही लिखी गयी प्राचीन महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों की प्रतिलिपि की प्रशस्तियों को रखा गया है। दोनों ही प्रकार की प्रशस्तियों में प्रायः समान रूप से रचनाकार या प्रतिलिपिकार मुनि की गुरुपरंपरा, रचनाकाल पा लेखनकाल आदि का उल्लेख मिलता है। विवेच्य निबन्ध में केवल उन्हीं कृतियों को रखा गया है जिनकी प्रशस्तियां इस गच्छ के इतिहास के अध्ययन की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं । उक्त प्रशस्तियों को क्रमशः ग्रन्थ-प्रशस्ति और पुस्तके प्रशस्ति के नाम से जाना जाता है । इनका अलगअलग विवरण इस प्रकार है : (क) ग्रन्थप्रशस्तियां
१. सुरसंदरीचरियं (सुरसुन्दरीचरित) प्राकृत भाषा में १६ अध्यायों में विभक्त ४००० गाथाओं की यह कृति चन्द्रकुल के आचार्य धनेश्वरसूरि की कृति है। इसमें एक विद्याधर राजकुमार की प्रणयगाथा वर्णित है। कृति के अन्त में प्रशस्ति के अन्तर्गत ग्रन्थकार ने अपनी गुरु-परम्परा और रचनाकाल का उल्लेख किया है, जो इस प्रकार है :
उद्योतनसूरि
वर्धमानसूरि
जिनेश्वरसूरि
बुद्धिसागरसूरि जिनभद्र अपरनाम धनेश्वरसूरि (वि० सं० १०९५/ईस्वी सन् १०३९ में सुरसुन्दरीचरित के रचनाकार) । २. संवेगरंगशाला-यह कृति चन्द्रगच्छीय जिनचन्द्रसूरि द्वारा वि०
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तुलसी प्रज्ञा
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