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के विचारों में भरतमुनि के सिद्धांत और कवियों के व्यवहार दोनों ही दृष्टियों से नायक में धीरोद्धत, धीरोदात्त, धीरललित और धीर प्रशान्नचारों प्रकार के नायकों का चित्रण किया जा सकता है।
वास्तव में यदि संस्कृत-नाट्य-साहित्य पर दष्टिपात किया जाय तो उसमें अनेक ऐसे नाटक हैं, जिनके नायक धीरोदात्त न होकर धीरोद्धत, धीरललित या धीरप्रशांत कोटि के हैं । 'वेणिसंहार' नाटक का नायक धीरोद्धत, 'नागानंद' का धीरप्रशांत और 'स्वप्नवासवदत्तम्' का नायक धीरललित रूप में वर्णित है ।" कुछ विद्वान् ‘मालविकाग्निमित्र' के नायक अग्निमित्र को भी धीरललित कोटि का मानते हैं। वस्तुत: आचार्य भरत का यह आग्रह नहीं है कि नाटक का नायक केवल धीरोदात्त या धीरललित ही होना चाहिए क्योंकि उनकी दष्टि में चारों भेद ग्राह्य हैं। इसीलिए नाट्यदर्पणकार ने भरत के सिद्धांत और कवि-समय के आधार पर केवल धीरोदात्त ही नहीं, अपितु धीरोद्धतादि चारों प्रकार के नायकों को नाटक के लिए उपयुक्त माना है। उन्होंने अपने सुप्रसिद्ध नाटक 'नवविलास' के नायक नल को धीरललितरूप में ही प्रस्तुत किया है।
आचार्य भरत के अनुसार देवता धीरोद्धत तथा राजा धीरललित होते हैं। सेनापति तथा अमात्य धीरोदात्त, ब्राह्मण एवं वणिक् धीरप्रशांत होते हैं। नाट्यदर्पणकार की दृष्टि में देवता धीरोद्धत, सेनापति एवं मंत्री धीरोदात्त, वणिक तथा ब्राह्मण धीरप्रशांत और राजा (क्षत्रिय) चारों प्रकार के स्वभाव वाले हो सकते हैं। यहां यद्यपि धीरललित का उल्लेख नहीं हुआ किन्तु व्यक्ति भेद से क्षत्रिय चारों स्वभाव के हो सकते हैं। इस कथन से क्षत्रियों में धीरललित का समावेश स्वयमेव हो जाता है ।
अधिकांश नाट्याचार्यों ने अभिनय या वस्तु-निबन्धन की दृष्टि से नाटकीय कथावस्तु के दो भेद माने हैं—सूच्य और दृश्यश्रव्य ।" परन्तु नाट्यदर्पणकार इस मत से सहमत नहीं हैं। उन्होंने इसके चार भेदों का उल्लेख किया है--सूच्य, प्रयोज्य, अभ्यूह्य एवं उपेक्ष्य। इनमें से सूच्य और प्रयोज्य तो पुराने भेद ही हैं परन्तु अभ्यूह्य इवं उपेक्ष्य भी उपयोगी हैं । उन सूच्य और प्रयोज्य दोनों का अविनाभूत अर्थात् जिसके बिना सूच्य और प्रयोज्य भाग का उपपादन ही न हो सके, उसे अभ्यूह्य कहते हैं। यथाअन्य स्थान पर पहुंचने के लिए अपरिहार्य गमन आदि की ऊहा (कल्पना) स्वयं ही करनी पड़ती है, क्योंकि गमन-व्यापार किये बिना दूसरे स्थान पर पहुंचना संभव नहीं है । जुगुप्सित वस्तु उपेक्ष्य कहलाती है। यथा-भोजन, स्नान, शयन, प्रस्रवण आदि । परन्तु जो प्रसंग उपयोगी एवं मनोरंजक हो अथवा जिसमें प्रबन्ध का प्रकर्ष निहित हो, उसे प्रदर्शित करना अनुचित नहीं है।
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तुलसी प्रज्ञा
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