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संसारात प्राणियों के लिए अहिंसा शान्तिदायिका है, जैसे प्यास से आर्त व्यक्ति को जल शान्ति प्रदान करता है । वैसे ही अहिंसा के शांतिदायात्मिका' स्वरूप को उद्घाटित करने के लिए 'ति सियाणं पिव सलिलं ५५ को उपमान बनाया गया है ।
वह सुख और बल प्रदात्री है । जब साधक परिषहों की मार से अत्यंत बलहीन हो जाता है तब अहिंसा उसे पुनः पराक्रमशील और उत्साह भरकर संयम मार्ग में अधिष्ठित करती है । क्षुधार्त प्राणियों को भोजन बल, सुख तथा गन्तव्य तक जाने के लिए शक्ति प्रदान करता है । इस तथ्य को समुद्घाटित करने के लिए 'खुहियाणं पिव असणं ६ हुआ है ।
उपमान का विनियोग
अहिंसा संसाराम्बुधि में निमज्जित एवं संतरण - असमर्थ जीवों को पार उतारने वाली समर्थ नौका है । जैसे अगाध समुद्र में डूबने वाले व्यक्ति को जहाज न केवल डूबने से बचाता है अपितु पार भी उतार देता है । उसी प्रकार भव्य जीवों को अहिंसा संसार सागर से पार उतारती है । मोक्ष - गृह का मार्ग प्रशस्त करती है । इस आशय को प्रकट करने के लिए पोतवहणं ५७ को उपमान के रूप में विन्यस्त किया गया है ।
वह सम्पूर्ण जीवों का आश्रय है इसलिए 'चउप्पयाणं व आसमपयं " उपमान का प्रयोग किया गया । अहिंसा संसारिक रोगों का विनाश कर मानसिक शारीरिक स्वस्थता प्रदान करती है । जैसे ओषधि जीवों के विभिन्न रोगों को समाप्त कर स्वास्थ्य और बल प्रदान करती है वैसे ही अहिंसा द्वेष और वैरादि भावरोगों को निरस्तकर जीव मात्र को आत्मिक स्वास्थ्य एवं चारित्रिक बल से पूर्ण करती है । 'दुह ट्टियाणं च ओसहिबलं " रूप उपमान से यह तथ्य प्रकट होता है ।
अहिंसा जीवों की श्रेष्ठ एवं सशक्त संरक्षिका है । जैसे भयंकर जंगल में समर्थ - सार्थवाहों का संघ हिंसक एवं लुण्टाकों से जान-माल का संरक्षक . होता है, उसी प्रकार अहिंसा संसार वन में विभ्रमित जीवों को मिथ्यात्व, अव्रत, कषाय एवं प्रमादादि लुटेरों एवं प्रवंचको से सुरक्षा प्रदान करती है । 'अडवीमज्झे व सत्थगमणं' से यह तथ्य उद्घाटित होता है ।
उपर्युक्त विवेचन से यह परिलक्षित होता है कि अहिंसा न केवल मनुष्यों के लिए बल्कि त्रस-स्थावर सम्पूर्ण जीव जाति की कल्याण साधिका है । इसी आशय को प्रश्न व्याकरणकार ने प्रकट किया है
"अहिंसा" 'तस - थावर सव्वभूयखेमकरी । '
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सन्दर्भ सूची
१. युधिष्ठिर मीमांसक, संस्कृत-हिन्दी धातु कोश पृ० १४२
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तुलसी प्रज्ञा
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