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सदृशग्राही और प्रसज्य निषेधग्राही है। यथा 'अब्राह्मणो गच्छति' कहने से ब्राह्मण का निषेध हो जाता है, साथ ही तत्सदृश क्षत्रियादि-जो आरोपित ब्राह्मणत्व वाले हैं, उनका ग्रहण हो जाता है । इसी प्रकार 'अहिंसा शब्द से प्राणव्यारोपण रूप हिंसा का निषेध हो जाता है लेकिन 'अ' से अहिंसा के सदृश दया, करुणा, मुदिता, मैत्री आदि भावों का ग्रहण भी होता है। ये सादृश्य-भाव अहिंसा को पुष्ट करते हैं या अहिंसा के फलित रूप भी हो सकते
संसार का आद्यग्रंथ ऋग्वेद, अहिंसा के धरातल पर ही अवस्थित है । ऋषि की दृष्टि में मनुष्य का प्रथम एवं श्रेष्ठ कर्त्तव्य है-एक दूसरे की रक्षा करना अर्थात् हिंसा का सर्वथा परित्याग । ऋग्वेद-ऋषि कहता है
पुमान् पुमांसं परिपातु विश्वतः ।। ऋग्वेद का अन्तिम सूक्त अहिंसा की सर्वाङ्गीण व्याख्या है ---
संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम्
देवा भागं यथापूर्वे संजानाना उपासते ॥ यजुर्वेद के ऋषि विश्वमैत्री की उद्घोषणा करते हैंमित्रस्याहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे ।' मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे ।।
अथर्ववेद में पारस्परिक सद्भावना---जिसका अभाव ही हिंसा का मूल है, पर अधिक बल दिया गया है
१. तत्कृण्मो ब्रह्म वो गृहे संज्ञानं पुरुषेभ्यः ।। (हम सभी ऐसी प्रार्थना करें जिससे आपस में सुमति और सद्
भावना का प्रसार हो)। २. यांश्च पश्यामि यांश्चन तेषु मां सुमति कृधि । (भगवन् आपकी कृपा से परिचितापरिचित सभी जीवों के प्रति
सद्भावना सम्पन्न होऊ)।
ऋग्वेद में ऋषि सूर्य से प्रार्थना करता है कि सूर्य की किरणे एवं संपूर्ण दिशाएं हम जीव मात्र के लिए शान्तिदायिनी हों---
शं नः सूर्य उरुचक्षा उदेतु। ___ शं नस्चतस्र प्रदिशो भवन्तु ॥"
__ इसी प्रकार यजुर्वेद के एक स्थल पर सम्पूर्ण त्रस-स्थावर जाति के लिए शान्ति-कामना की गई है --
द्यौः शान्तिरन्तरिक्षं शान्तिरापः शान्तिरोषधयः शान्तिः विश्वेदेवाः शान्तिः ब्रह्मशान्तिः सर्व शान्ति शान्तिरेधि ।१२
उपनिषद-साहित्य को अहिंसा का ग्रंथ-संग्रह कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। ईशावास्योपनिषद् में कहा गया है कि वही व्यक्ति
तुलसी प्रज्ञा
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