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मोहरहित एवं शोकवियुक्त हो सकता है जो सर्वभूतमात्र में समानता रखता हो, सबमें ब्रह्मभाव का दर्शन करता हो
सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न विजुगुप्सते । ”
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तत्र को मोहः कः शोकः एकत्वमनुपश्यतः ॥
प्राणाग्निहोत्रोपनिषद् में अहिंसा को आत्मसंयम का प्रमुख साधन माना गया है और कहा गया है कि स्मृति, दया, शान्ति एवं अहिंसा सम्पन्न गृहस्थ पत्नी के अभाव में भी यज्ञाधिकारी हो सकता है
स्मृतिदाशान्तिऽहिंसापत्नी संजायाः ॥ ४
छान्दोग्योपनिषद् के अनुसार अहिंसक व्यक्ति जन्म-मरण के भय से मुक्त होकर ब्रह्मलोक में प्रतिष्ठित हो जाता है ।" अन्यत्र आत्मोपासना प्रसंग में तप, दान, आर्जव एवं सत्यवचन के साथ अहिंसा को आत्म यज्ञ की दक्षिणा कहा है अर्थात् अहिंसा रूप दक्षिणा के बिना आत्म यज्ञ की पूर्णता हो ही नहीं सकती है—
'अथ यत्तपो दानमार्जवमहिंसा
सत्यवचनमिति ता अस्य दक्षिणा ।
आरुणिकोपनिषद् में ब्रह्मचर्य एवं अहिंसादि व्रतों की रक्षा पर विशेष बल दिया गया है
ब्रह्मचर्यमहिंसा चापरिग्रहं च सत्यं च यत्नेन हे रक्षतो हे रक्षतो हे रक्षत इति । "
मनु - स्मृतिकार ने अहिंसा को चारों वर्णो के लिए आवश्यक, परम पद का साधक एवं श्रेष्ठ सामायिक धर्म कहा है ।" महर्षि वाल्मीकि ने आनृशंस्य, अनुक्रोश, श्रुत, शील, दम और शम को पुरुष का विभूषण बताया है ।" ब्यासदेव ने महाभारत में अहिंसा की सर्वाङ्गपूर्ण व्याख्या की है । उनके अनुसार वही व्यक्ति अमृतत्व को प्राप्त कर सकता है जो सर्वभूत कल्याणरत हो । अहिंसा को सकलधर्म, परमधर्म, श्रेष्ठधर्म, व्रत, यज्ञ, परमफल, परममित्र एवं सभी तीर्थों तथा दानों में श्रेष्ठ माना गया हैअहिंसा परमो धर्मस्तथा हिंसा परो दमः । अहिंसा परमं दानमहिंसा परमं तपः ॥ अहिंसा परमो यज्ञस्तथाहिंसा परं फलम् अहिंसा परमं मित्रं अहिंसा परमं सुखम् ॥
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पुराणों एवं अन्य महाकाव्यों में अहिंसा पर विस्मृत प्रकाश डाला गया है । वायु पुराण में अहिंसा के सर्वात्मना पालन का आदेश दिया गया
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अहिंसा सर्वभूतानां कर्मणा मनसा गिरा
खण्ड १९, अंक ४
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