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भागवत पुराण में अहिंसा का विस्तृत विवेचन उपलब्ध होता है। वहां पर ब्रह्म प्राप्ति के अठारह साधनों में से अहिंसा को एक माना है।"
योगदर्शन के अष्टांग में प्रथम परिगणित यम के अन्तर्गत अहिंसा सर्वप्रथम है । महाव्रतों में इसे प्रथम परिगणित किया गया है
अहिंसा सत्यं अस्तेय ब्रह्मचर्यापरिग्रहायमाः ।। जाति देशकालसमयानवच्छिन्ना सार्वभौमाः महाव्रतम् ।२४
अहिंसा की प्रतिष्ठा से वैर का सर्वथा अभाव हो जाता है। अहिंसा प्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्यागः ।२५ सांख्याचार्य हिंसा का निषेधकर व्यक्त अव्यक्त एवं ज्ञ रूप २५ तत्त्वों के ज्ञान को ही मुक्ति का साधन मानते हैं । " आचार्य-शंकर ने भी हिंसा का पूर्ण-निषेध किया है ।
बौद्ध-दार्शनिकों ने शील के अन्तर्गत अहिंसा को प्रमुख स्थान दिया है।" बौद्ध-ग्रंथों में अहिंसा के विधेयात्मक रूप मैत्री, मुदिता, करुणा उपेक्षा आदि पर प्रभूत बल दिया गया है। जो शरीर, मन और वचन से हिंसा का सर्वथा परित्याग करता है, तथा किसी भी जीव को प्रताड़ित नहीं करता वही सच्चे अर्थ में अहिंसक है ।२८ जो अहिंसा में रत रहता है वह उच्च पद को प्राप्त करता है। बोधिसत्त्व वही हो सकता है जो अहर्निश सर्वभूत कल्याणरत रहता है। बोधि चर्यावतार में विश्वमैत्री किंवा जीव मैत्री पर बल दिया गया है।
जैन दर्शन का तो मूलाधार ही अहिंसा है। जैन दार्शनिकों ने अहिंसा की सर्वाङ्गपूर्ण व्याख्या की है। इसे श्रेष्ठ धर्म माना गया है
___'धम्मो मंगलमुक्किठें अहिंसा संजमो तवो।"
सव्वेपाणा सव्वेभूता सव्वेजीवा सव्वे सत्ता " हंतव्वा ण अज्जावेयव्वा, ण परिघेतव्वा, ण उद्दवेयव्वा । एस धम्मे सुद्धे णिइए सासए समिच्च लोयं खेयण्णेहिं पवेइए । 'प्रश्न व्याकरण' में अहिंसा
__'प्रश्न व्याकरण' का ऋषि अहिंसा पूर्व हिंसा के स्वरूप का प्रतिपादन करता है।३२ जैन वाङमय में अन्यत्र भी अनेक स्थलों पर अहिंसा की प्रतिष्ठापना के निमित्त हिंसा के स्वरूप पर प्रकाश डाला गया है। यथा--- १. रागादि की उत्पत्ति हिंसा हैतेसिं चे उत्पत्ती हिंसेति जिणेहि णि द्दिट्ठा । "रागाद्यत्पत्तिस्तु निश्चयो हिंसा'३४
अर्थात् रागादयो हिंसा चास्त्यधर्मोवतच्युतिः ।३५ ३१०
तुलसी प्रज्ञा
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