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सन्धि में बीज का प्रबल रूप से प्रकाशन हो जाता है।
नाट्यदर्पणकार का एक मौलिक विचार प्रकरण के लक्षण में आया है । धनञ्जय प्रमृति आचार्यों के अनुसार प्रकरण में धीरप्रशान्त स्वभाव वाले, अमात्य, विप्र और वणिक् में से कोई एक नायक रखना चाहिए । परन्तु नाट्यदर्पणकार की दृष्टि में अमात्य के साथ धीरप्रशांत विशेषण लगाना उचित नहीं है । उन्होंने स्पष्टतः कहा है कि जो अमात्य को नायक मानकर 'धीरप्रशांत-नायक वाला रूपक प्रकरण होता है', इस प्रकार जो प्रकरण को विशेषित करते हैं, वे वृद्धसम्प्रदाय को नहीं समझते, क्योंकि भरत की दृष्टि में सेनापति और अमात्य धीरोदात्त माने जाते हैं। यद्यपि इस समय नाट्यशास्त्र की जो प्रति उपलब्ध है, उसमें भरत ने भी प्रकरण में उदात्त नायक का निषेध किया है । इससे यही प्रतीत होता है कि नाट्यदर्पणकार के पास नाट्यशास्त्र की जो प्रति थी उसमें उदात्त नायक का निषेध न रहा होगा, तभी तो उन्होंने अपने मत को भरत-मत के अनुरूप बताया है । अथवा इस स्थल पर उन्होंने भरत के कथन में वदतोव्याघात दोष दिखाकर उनके मत का भी परिष्कार करने का प्रयास किया हो। कारण कुछ भी हो किन्तु इस स्थल पर नाट्यदर्पणकार का विचार सर्वथा मौलिक एवं विचारणीय है।
तृतीय विवेक में प्ररोचना का लक्षण करते समय नाट्यदर्पणकार ने भरत-मत से मतभेद प्रकट करते हुए अपने एक नवीन विचार को प्रस्तुत किया है । उन्होंने भरत द्वारा बताये गये पूर्वरङ्ग के उन्नीस अङ्गों में से केवल एक अङ्ग प्ररोचना को ही ग्राह्य माना है और शेष को छोड़ दिया है। उनकी दृष्टि में भरतोक्त ये उन्नीसों अङ्ग स्वतः लोकप्रसिद्ध हैं, उनका वर्णन-क्रम निष्फल है तथा उनका फल विविध देवताओं के परितोषरूप व श्रद्धालुप्रतारण मात्र है। इसलिए वे उपेक्षणीय हैं । परन्तु प्ररोचना तो पूर्वरंग का अङ्ग होने पर भी नाट्य में प्रवृत्त कराने में प्रमुख है ।३५ ।
वृत्ति-निरूपण के प्रसङ्ग में भी नाट्यदर्पणकार ने अपनी मौलिक उद्भावनायें प्रस्तुत की हैं । उन्होंने चारों वृत्तियों के नामों की व्युत्पत्ति इस प्रकार प्रस्तुत की है----
(अ) भारती-भारतीरूपत्वाद व्यापारस्य भारतीति । (ब) सात्त्वती-सत् सत्वं प्रकाशः, तद्यत्रास्ति तत् सत्त्वं मनः, तत्र
भवा सात्त्वती । संज्ञाशब्दत्वेन बाहुलकात स्त्रीत्वम् । (स) कैशिकी आतिशायिनः के शाः सन्त्यासामिति केशिका: स्त्रियः।
......तत्प्रधानत्वात् तासामियं कैशिकी। (द) आरभटीआरेण प्रतोदकेन तुल्या भटा उद्धताः पुरुषा आर
भटाः । ते सन्त्यस्यामिति 'ज्योत्स्नादित्वादणि' आरभटी ।
खण्ड १९, अंक ४
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