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अर्थात् यदि स्वार्थानपेक्ष रूप से केवल अन्य अर्थात् प्रधान नायक के प्रयोजन को सिद्ध करने वाला चेतन सहायक नाट्य के अधिक भाग में व्यापक न होकर केवल एकदेशव्यापी ही हो तो उसे प्रकरी कहते हैं । . कार्यरूप अर्थप्रकृति के निरूपण में भी नाट्यदर्पणकार के विचार अत्यन्त मौलिक हैं। धनञ्जय आदि की दृष्टि में कार्य का अभिप्राय धर्म, अर्थ एवं काम रूप-पुरुषार्थ से है, जिसकी प्राप्ति हेतु नायक के कार्यारंभादि का चित्रण किया जाता है। इस प्रकार इन आचार्यों ने कार्य को ही साध्य मान लिया है जबकि कार्यरूप अर्थप्रकृति साध्य न होकर साधन है। नाट्यदर्पणकार के अनुसार प्रारम्भावस्था के रूप में निक्षिप्त बीज को पूर्णता तक पहुंचाने वाला सैन्य-कोश-दुर्ग-सामादि उपायरूप द्रव्य, गुण, क्रिया आदि समस्त अचेतन साधनभूत अर्थ, नायक-पताकानायक-प्रकरीनायक आदि चेतनों के द्वारा साध्य की सिद्धि में विशेष रूप से प्रवृत्त कराया जाता है, इसलिए यह कार्य कहलाता है। अतः स्पष्ट है कि प्रधान लक्ष्य की प्राप्ति हेतु नायकादि का जो कार्यव्यापार चलता है और उसके लिए जो आवश्यक साधन-समुदाय है, वह सब कार्य के अन्तर्गत ही आता है। इस प्रकार प्रधान लक्ष्य की सिद्धि में बीज का सहकारी ही कार्य है।
फलागम पञ्चमी कार्यावस्था के निरूपण में भी नाट्यदर्पणकार ने कुछ मौलिक उद्भावनाएं प्रस्तुत की हैं। धनञ्जय आदि आचार्यों ने पूर्ण रूप से फल की प्राप्ति को फलागम माना है। परन्तु नाट्यदर्पणकार के अनुसार नायक को साक्षात् रूप से अभीष्ट अर्थ की सम्यक रूप से उत्पत्ति फलागम
'साक्षादिष्टार्थसम्भूतिनीयकस्य फलागमः । २९
यहां 'साक्षात्' और 'फलागम' शब्द विशेष महत्त्वपूर्ण हैं। साक्षात् का अभिप्राय यह है कि अभीष्टार्थ की प्राप्ति दानादि से प्राप्त होने वाले स्वर्गादि फल के समान दूसरे जन्म में प्राप्त होने वाले फल के रूप में नहीं, बल्कि इसी जन्म में कार्य के तुरस्त बाद होनी चाहिए। यदि नाटक में जन्मान्तरभावी फल की प्राप्ति का वर्णन होगा तो सामाजिकों को कर्तव्याकर्तव्य का सदुपदेश नहीं प्राप्त हो सकेगा। इसलिए फल-प्राप्ति का वर्णन साक्षात् रूप से ही होना चाहिए । इसी प्रकार 'फलागम' शब्द से उन्होंने फल की पूर्ण रूप से प्राप्ति नहीं, बल्कि 'फल-प्राप्ति का आरम्भ'--यह अर्थ लिया है । वस्तुतः फल की पूर्ण प्राप्ति तो अवस्था नहीं, बल्कि प्रबन्ध का मुख्य साध्य है। इसी संदर्भ में उनका एक विचार यह भी है कि आरम्भादि चारों अवस्थायें नायक के अतिरिक्त सचिव, नायिका, प्रतिनायक, दैव आदि के द्वारा भी आयोजित हो सकती हैं किंतु फलागमरूप अन्तिम अवस्था केवल नायक को ही प्राप्त होती है।
खण्ड १९, अंक ४
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