________________
क्रियमाणं कृतम्
डॉ० नथमल टाटिया
1. सभी दर्शन किसी न किसी रूप में कारणता के सिद्धान्त को अवश्य स्वीकार करते हैं और न करने वालों को भी अन्ततोगत्वा उसकी तार्किक समीक्षा करनी ही पड़ती है, जैसाकि माध्यमिक बौद्ध इस सिद्धान्त का विस्तार से खण्डन करते हुए अपने सर्व शून्यतावाद की सम्पुष्टि करते हैं । ये सारे खंडन-मंडन कारण और कार्य के पारस्परिक सम्बन्ध के प्रश्न पर आधारित हैं।
2. उदाहरणार्थ. सांख्य-योग दर्शन कार्य को कारण में पहले से ही विद्यमान मानते हैं। कारण ही कार्य के रूप में परिणत होता है एवं फलस्वरूप कार्य की अभिव्यक्ति होती है। कार्य यदि कारण में पहले से ही विद्यमान नहीं होता तो उसका आविर्भाव कैसे होता ? तिल से तेल उत्पन्न होता है न कि सिकता से । यह कार्य-कारणवाद परिणामवाद कहलाता है । इसका अपर नाम सत्कार्यवाद है । यह परिणाम शब्द भिन्न-भिन्न दर्शनों में भिन्न-भिन्न अर्थ का वाचक है। वैभाषिकों का परिणामवाद सांख्य-योग के परिणामवाद से सर्वथा भिन्न है तथा जैन दार्शनिकों का परिणामवाद भी अपनी वैयक्तिक विशेषता रखता है । सांख्य-योग का परिणामवाद ही वेदान्त में विवर्तवाद का रूप धारण करता है। उपर्युक्त सत्कार्यवाद या परिणामवाद के विरुद्ध न्याय-वैशेषिक दर्शन अपना आरम्भवाद या असत्कार्यवाद प्रस्तुत करता है, जिसमें कार्य की सर्वथा अविद्यमानता कारण में मानी जाती है। इन दोनों वादों में उपादान कारण अर्थात् द्रव्य की सत्ता स्वीकृत की जाती है। इन वादों को अस्वीकार करते हुए बौद्ध दार्शनिक प्रतीत्यसमुत्पाद वाद समुपस्थापित करते हैं । इस वाद में द्रव्य पदार्थ या धर्मी स्वीकार नहीं किया गया है। कार्य
तुलसी प्रज्ञा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org