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वाद के प्रतिपादक थे। उन्होंने हर आत्मा में ईश्वरीय सत्ता बताई। महावीर नहीं चाहते थे कि भक्त भक्त ही बने रहें । उन्होंने कहा-हर आत्मा में अनन्त शक्ति है। शक्ति को उद्घाटित करके हर प्रात्मा मोक्ष जा सकती है।
2. विचार स्वातन्त्र्य
महावीर की दृष्टि में सत्य असीम है । उसे एक ही सीमा में बांधा नहीं जाता। सत्य को अनेक दृष्टियों से परखा जा सकता है और अपेक्षा भेद से सभी दृष्टियाँ सत्य हो सकती हैं। महावीर ने कहा- मेरे विचारों का जितना महत्व है, दूसरे के विचारों का भी उतना ही महत्त्व है । यह समझ कर किसी के विचार स्वातन्त्र्य का अपहरण मत करो। यदि तुम दूसरे की बात को सर्वथा ठुकराते हो तो तुम्हारा कथन भी सत्य कैसे हो सकता है ।
3. समता
महावीर ने प्राणीमात्र में समता का दर्शन किया। उन्होंने कहा-आत्मत्व की दष्टि से आत्मा आत्मा के बीच कोई विभेद नहीं है । हर आत्मा सुख चाहती है, दुःख नहीं। हर आत्मा जीना चाहती है, मरना नहीं। इसलिए किसी को मत मारो, मत सताओ । किसी को सुखी बनाना तुम्हारे बस की बात नहीं है, पर किसी को दु:खी तो मत बनाओ । जिस व्यवहार से या जिस भाषा के प्रयोग से तुम्हें कष्ट होता हो वैसा व्यवहार व वैसी भाषा का प्रयोग औरों के साथ मत करो। यह है समत्व का आदर्श ।
महावीर का यह दर्शन सार्वभौम सत्य है। आज विश्व के अणु-अणु में महावीर के दर्शन की गूंज है। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर विकसित हुई मैत्री, असंग्रह और सह-अस्तित्व की भावना महावीर के अहिंसा, अपरिग्रह और समता दर्शन के ही फलित हैं।
महावीर ने यथार्थ की भूमिका पर खड़े होकर यथार्थ का प्रतिपादन किया। महावीर के यथार्थवाद की स्तुति करते हुए आचार्य हेमचन्द्र ने अयथार्थवादियों पर व्यंग्य किया है
यथास्थितं वस्तु दिशन्नधीश ! न तादृशं कौशलमाश्रितोऽसि ।
तुरंगश्रृंगाण्युपपादयद्भ्यो नम: परेभ्यो नव-पण्डितेभ्यः ।।
भगवन् ! हम आपको महान् क्यों मानेंगे ? आपने कोई नया दर्शन तो हमें नहीं दिया। आपने यही तो कहा-अच्छे को अच्छा समझो, बुरे को बुरा । धर्म को धर्म समझो, अधर्म को अधर्म । यथार्थ को यथार्थ समझो, अयथार्थ को अयथार्थ । हम
तुलसी प्रज्ञा
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