Book Title: Tirthankar Mahavir
Author(s): Subhadramuni
Publisher: University Publication New Delhi

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Page 8
________________ काव्य और मैं भाषा का जब से विकास हुआ, तभी से उसने अपनी रसात्मकता, सम्वेदनशीलता, करुणा और ललित-कोमल शब्दावली के कारण मनुष्य को आकर्षित किया। मनुष्य के लिये यह कौतूहल और आनन्द का विषय था-काव्य की सरिता कैसे मस्तिष्क के कूलों को स्पर्श करती हुई हृदय-प्रदेश पर बहती है? कैसे उस में हृदय के समस्त रस स्वतः प्रकट हो जाते हैं? यही कारण था कि समय-समय पर अनेक शब्द-साधक अनुभूति व अभिव्यक्ति के अनेक मार्गों से होते हुए आनन्द के इस स्रोत तक पहुँचते-पहुँचाते रहे। ___ मुझे भी काव्य प्रिय रहा। मैं एकांत-विश्रांत पलों में, काव्य पढ़ता, गुनगुनाता। काव्य-रचना का कोई विशेष प्रसंग मेरे जीवन में नहीं बना। अतः इस दिशा में मेरा कार्य रचना के स्तर पर स्वल्प रहा और प्रकाशन की दृष्टि से अत्यल्प। रचना के स्तर पर काव्य के इस रूप में मेरी रुचि कब और कैसे बनी, इसका उल्लेख यहाँ अपेक्षित प्रतीत हो रहा है। सन् 1977 की बात । परम पूज्य गुरुदेव संघशास्ता श्री रामकृष्ण जी म० का चातुर्मास रोहतक मण्डी में था। गुरुदेव की सेवा में यह सेवक (लेखक) भी था। उस चातुर्मास में मुझे लगभग 10-15 दिन बुखार आया। बुखार ने मुझसे मेरे सभी काम छीन लिये। सारे दिन लेटे रहो, मेरा बस यही एक काम रह गया। विश्राम करते हुए एक दिन सहसा मेरे मानस में एक विचार जागा। मैं उसे गद्य-कविता के रूप में बोलने लगा। उसके स्वर उसी के रूप में मैंने कागज पर उतार लिये। बाद में विचार करने पर अनुभव हुआ कि सम्भवतः यही मेरी प्रथम कविता है, जिसका शीर्षक था- 'नजर'। उन्हीं दिनों लगभग तीस-चालीस गद्य-कवितायें अंकित हुई। उन में से कुछ अनेक जैन पत्र-पत्रिकाओं व 'पंजाब केसरी', 'नवभारत टाइम्स' आदि राष्ट्रीय दैनिकों में प्रकाशित हुई। तब मैं 'पारिजात' और 'शुभ', इन दो उपनामों से कवितायें भेजा करता था। प्रकाशित होने पर लगा कि औरों की दृष्टि में ये 'कवितायें हैं। यही था—काव्य-रचना व प्रकाशन से मेरे परिचय का आरम्भ। ___ आरम्भ तो हो गया परंतु काव्य और मेरे बीच जो प्रगाढ़ सम्बन्ध-सेतु सम्भावित था, वह बन नहीं सका। परिस्थितियों के दबाव और गुरुदेव श्री के श्रद्धालुओं के आग्रह से मेरा अधिकांश लेखन-कार्य गद्य के रूप में ही हुआ। यूं मेरा गद्य से कोई विरोध तो था नहीं, जो मैं उसे रोकता। परिणामतः एक के बाद एक, गद्य-कृतियाँ प्रकाशित होती रहीं। काव्य छूट गया...यह तो मैं तब सोचूं जब वह मुझ में ठीक से उदित हुआ हो। एक प्रसंग फिर घटा। मेरी गुजराती पढ़ने की रुचि जागी। तब मेरा सम्पर्क प्रोफेसर महेन्द्र भाई दवे से हुआ। गुजराती भाषा के प्रतिष्ठित विद्वान तो वे थे ही परन्तु विशेष यह कि काव्य में भी विशेष रुचि रखते थे। उन्होंने मुझे अपनी छन्द-मुक्त कवितायें दिखाई। मरे मन में प्रसुप्त काव्याकर्षण पुनः जागृत हो उठा। मैंने भगवान् महावीर के महान् जीवन को काव्य-रूप में आकार देने की पोची। कुछ कवितायें रची गई। आत्म-विश्वास तो था नहीं। अतः मैंने वे कवितायें प्रोफेसर साहब को दिखायीं। उन्होंने उन्हें पसंद किया। कुछ सुझाव भी दिये। काव्य से मेरे पुराने परिचय का नवीनीकरण हुआ। काव्य से सम्बन्धों का सेतु फिर निर्मित होने लगा। सन 1995 में मैंने ‘पच्चीस बोल' (जैन तत्त्व ग्रंथ) पर प्रवचन दिये। तब काव्य की लहर पुनः आयी और कुण्डलिया छन्द में पच्चीस बोल के मोती दे गई। उन्हें अंकित किया। सुनाया। प्रतिक्रियायें उत्साहवर्द्धक थीं। कुछ बच्चों ने उन्हें मुखाग्र भी किया। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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