Book Title: Tattvartha Sutra Part 02
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 7
________________ ४८ मारणांतिक संलेखना के पांच अतिचारों का निरूपण सू०५३ ३८९-३९५ ४९ पांच महावतों का निरूपण सू० ५४-५५ ३९५-३९९ ५० पच्चीस भावनाओं का निरूपण सू० ५६ ४००-४१२ ५१ सामान्य प्रकार से सर्वव्रत की भावनाओं का निरूपण सु०५७ ४१३-४२८ ५२ सब प्राणियों में मैत्रिभावना का निरूपण सू०५८ ४२९-४३६ ५३ चारित्र के भेदका निरूपण सू० ५९ ४३७-४३९ ५४ तप के भेद कथन सू० ६० ४५०-४५२ ५५ वाह्य तप के भेद का निरूपण सु० ६१ ४५३-४६४ ५६ आभ्यन्तर तप के भेद का निरूपण सू० ६२ ४६५-४६९ ५७ दश प्रकार के प्रायश्चित्त का निरूपण सू० ६३ ४६९-४८२ ५८ विनयरूप आभ्यन्तर तप के भेद का निरूपण सु०६४ ४८३-४८९ ५९ वैयावृत्य के भेदों का निरूपण सू० ६५ ४९०-४९५ ६० स्वाध्याय के भेद का निरूपण सू० ६६ ४९५-४९८ ६१ ध्यान के स्वरूप निरूपण सू० ६७ ४९८-५०२ ६२ ध्यान का चतुर्विध भेद का निरूपण सू. ६८ ५०२-५०५ ६३ धर्मध्यान एवं शुक्लध्यान मोक्ष के कारणरूप का निरूपण सू०६९ ५०५-५०७ ६४ आर्तध्यान के चार भेदों का कथन ०७० ५०८-५१४ ६५ अविरत आदि को आतध्यान होने का प्रतिपादन सू०७१ ५१४-५२१ ६६ रौद्रध्यान के चार भेदों का निरूपण सू० ७२ ५२६-५३७ '६७ धर्मध्यान के चार भेदों का निरूपण मु०७३ ५२६-५३७ ६८ शुक्लध्यान के चार भेदों का निरूपण सू०७४ ५३८-५४५ ६९ शुक्लध्यान के स्वामि आदि का कथन सू० ७५ ५४५-५५१ ७० केवलीको अन्तिम दो शुक्लध्यान होने का कथन मू० ७६ ५५२-५५६ ७१ चार प्रकार के शुक्लध्यान के स्थान विशेषका निरूपण मू० ७७ ५५६-५६० ७२ पहला एवं दूसरा शुक्लध्यान के संबन्ध में विशेष कथन स. ७८ ५६०-५६२ ७३ वितर्क के स्वरूप निरूपण सु०-७९ ५६२-५६७ ७४ पांचवें आभ्यन्तर तप व्युत्सर्ग के द्रव्य भाव के भेद से द्वि प्रकारता का कथन सू० ८० ५६७-५७०

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