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हो। स्वयं के प्रति अपने स्वरूप के प्रति जब तक हम श्रद्धावनत नहीं होते, तब तक हमारे जीवन के कल्याण की प्रतिक्रिया प्रारम्भ नहीं होती। बन्धुओ! सबसे पहली आवश्यकता है अपने स्वरूप के बोध की। स्वरूप के बोध के अभाव में हम कभी अपना कल्याण नहीं कर सकते। तत्त्वार्थसूत्र के टीकाकार आचार्य पूज्यपाद स्वामी ने जब इस सूत्र की व्याख्या करनी प्रारम्भ की तो यह कहा कि मोक्षमार्ग की शुरुआत कैसे होती है ? उन्होंने बहुत अच्छा उदाहरण दिया - एक व्यक्ति जैसे ही इस बात का एहसास करता है कि मैं रोगी है। मुझे किसी बीमारी ने घेरा है, वैसे ही किसी चिकित्सिक के पास जाता है और उससे अपनी बीमारी का इलाज कराता है । सन्त कहते हैं - ऐसे ही जिस तरह तुम बाहर की बीमारी का एहसास करते ही उसका प्रतिकार करते हो, उसी तरह वही मोक्षमार्ग में लग सकता है, जो संसार के दुःखों से व्याकुल होता है। हम अपने स्वरूप का एहसास करें कि क्या हम जिस रूप मे जी रहे हैं वही हमारा सही स्वरूप है अथवा हमें कुछ
और होना चाहिए। यह भावना जब व्यक्ति के मन में जगती है तब उसे मोक्षमार्ग में लगने का भाव जागृत होता है। संकल्प और साहस उसके अन्दर पैदा होता है।
मोक्षमार्ग की शुरूआत स्वरूप बोध से होती है और उसकी परिपूर्णता स्वरूप की उपलब्धि से होती है। हम कहते हैं कि मोक्ष मिल गया। मोक्ष कोई निधि है जो मिल गई ? मोक्ष और कुछ नहीं है, 'सिद्धिस्वात्मोपलब्धि' अपनी उपलब्धि का नाम ही सिद्धि है। इससे भिन्न किसी उपलब्धि की परिकल्पना मे कभी मत उलझना । हम अपने आपसे अपने स्वरूप से दूर है, बन्धनबद्ध हैं, हमारे ऊपर कर्म का, संस्कारों का, माया का, अज्ञान का, अविद्या का, बंधन है। जब तक यह बन्धन टूटता नहीं है तब तक हम अपने वास्तविक स्वरूप को उपलब्ध करने में सक्षम नही होते और स्वरूपोपलब्धि के अभाव में हमें मोक्ष की प्राप्ति कभी हो नहीं सकती।
तत्त्वार्थसूत्र का मूल प्रतिपाद्य यही है और इस बात मे जो सबसे महत्त्वपूर्ण निर्देश आचार्य उमास्वामी ने दिया है, वह है तुम एक को पकड़ कर बैठ मत जाना, अक्सर ऐसा होता है कि कोई सम्यक्त्व को, श्रद्धा को, ज्ञान को, आचरण को महत्त्व देते हैं। कोरी श्रद्धा से काम नहीं चलता, न कोरे ज्ञान से काम चलता है। श्रद्धा-ज्ञान शून्य क्रिया से भी काम नहीं चलता। हमारा उद्धार नहीं होता। हमारा उद्धार केवल तभी होगा जब हम तीनों से अपने आप को जोड़कर चलेंगे। इसे समझने के लिये में एक उदाहरण देता है। अभी प्राचार्य जी ने भी आचार्य महाराज द्वारा प्रदत्त एक उदाहरण आप सबको दिया। आपने नसैनी (सीढी) देखी होगी। इन तीनो की उपयोगिता को समझने के लिये मैं नसैनी का ही उदाहरण देता है। जैसे नसैनी में दो सीधी लकड़ियों और जोड़ने वाली आडी लकड़ियाँ होती है। सीधी लकड़ियों को हम सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान मान लें तो उन्हें जोड़ने वाली लकड़ी सम्यक्चारित्र है। इन तीनों का संयति होनी आवश्यक है।' भाचार्य स्मास्वामी कीधी में अकालमरण
अकालमरण के सम्बन्ध में जो भ्रान्तियाँ हैं, शायद इस लेख मे इसका समायोजन नहीं हो पाया है। अकालमरण की मान्यता विषयक प्रान्ति का निरसन उन्होंने यद्यपि कर दिया है, लेकिन प्राय: एक लोक मान्यता बन पड़ी है और जैसी कि वैदिक परम्परा में भी मान्यता है कि किसी की अकाल मृत्यु हो जाती है तो जितनी उसकी आय होती है, उतनी कालावधि तक वह प्राणी प्रेतयोनि में भटकता रहता है। जैन परम्परा में स्पष्ट उदघोष है कि आय के क्षय से ही मरण होता है। मायु का जब तक एक भी परमाणु बचा रहेगा तब तक मृत्यु नहीं हो सकती है।
जैन परम्परा यह बताती है कि यदि किसी की मृत्यु हुई है तो तत्क्षण वह जीव दूसरी योनि में जाकर अपने शरीर निर्वाह की प्रक्रिया प्रारम्भ कर देता है और कुछ कालावधि में अपने शरीर का निर्माण पूर्ण करके जन्म ले लेता है। एक