Book Title: Tattvartha Sutra Nikash
Author(s): Rakesh Jain, Nihalchand Jain
Publisher: Sakal Digambar Jain Sangh Satna

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Page 261
________________ तस्यार्थस्य निषेव म. संहनन - सर्वार्थसिद्धि' तथा तस्वार्थवार्तिक' टीकाओं में उत्तमसंहनन के अर्थस्वरूप वज्रवृषमनाराय वज्रनाराच व नाराच तीनों को ग्रहण किया है। यहाँ यह जिज्ञासा होना स्वाभाविक है कि उत्तम तो एक होता है। क्या में एक से अधिक संभव हैं ? पुनश्च तीनों संहननों में भी परस्पर श्रेष्ठता का तारतम्य तो मान्य है ही । एवं ज्ञानार्णव जी का निम्न मन्तव्य भी ध्यान देने योग्य है। यह शुक्लध्यान की अपेक्षा प्रदर्शित है. - न स्वामित्वमतः शुक्ले विद्यतेऽत्वल्पचेतसाम् । आय मंहननस्यैव तत्प्रणीत पुरातनैः ॥ 41/61 आय संहननोपेता निर्वेदपदवी जिताः 1 कुर्वन्ति निश्चलं चेतः शुक्लध्यानसमं नराः 11 41 / 9 || प्राचीन मुनियों ने पहले (वज्रर्षभनाराच) सहनन वालों के ही शुक्लध्यान कहा है। जिनके आदि का सहनन है और जो वैराग्य पदवी को प्राप्त हुए हैं ऐसे पुरुष ही अपने चित्त को शुक्लध्यान करने में समर्थ, निश्चल मानते हैं। यहाँ प्रश्न स्पष्ट है कि क्या आदि के तीनों सहननों में अथवा मात्र प्रथम संहनन में शुक्लध्यान की पात्रता है ? यह भी विचारणीय है कि मूल सूत्रकार ने "उत्तम सहननस्य" लिखकर एक वचन का प्रयोग किया। यदि उन्हें तीनों संहननों की ही उत्तमता अभीष्ट होती तो 'उत्तमसहननानाम्' (उत्तमानां संहननानां) पद क्यों नहीं रखा। सभवतः उनको आद्य सहनन ही इष्ट होगा । इस जिज्ञासा के समाधान हेतु ऊहापोह के क्रम में मेरा ध्यान आचार्य भास्करनन्दि (12 वीं शताब्दी) द्वारा प्रणीत टीका 'तत्त्वार्थवृत्ति:' पर आकर्षित हुआ। उस स्थल का निम्न कथन इस द्विविधा का समाधान करने का प्रयास विदित होता है । (सर्वार्थसिद्धि मे भी आद्य सहनन की मोक्ष पात्रता का उल्लेख है पर निम्न उद्धरण मे अच्छा खुलासा होता है ।) (9/27, पृ. 532 ) "उत्तमसंहननं वज्रर्षभनाराचसंहननं, वज्रनाराचसंहननं, नाराचसंहननमिति । प्रथमस्य निःश्रेयसहेतु ध्यानसाधनत्वासदितरयोश्च प्रशस्तध्यान- हेतुत्वादुसमत्वम् ॥" प्रथम सहनन की उत्तमता मोक्ष के हेतुभूत ध्यान की साधनता से है तथा इतर दो संहनन प्रशस्त ध्यान के हेतु हैं, अतः उत्तम हैं । यहाँ यह भी गवेषणीय है- आचार्य उमास्वामी ने ध्यान का लक्षण समग्र रूप से (सभी ध्यानों की दृष्टि से ) ही किया है, यदि वे शुक्लध्यान (मोक्ष का साक्षात् हेतु) के लिये एक सूत्र पृथक् से लिखते तो स्पष्ट हो जाता। खैर यहाँ हमें विवक्षित आगमार्थ से काम चलाना ही अभीष्ट होगा । कुल चर्चा का टीकाकारों के अनुसार ही निष्कर्ष यह निकाला जा सकता है कि 'एकत्ववितर्कअवीचार' नामक द्वितीय शुक्लध्यान के लिये आद्यसंहनन में ही पात्रता है। समायोजन तो करना ही होगा, क्योंकि सम्यग्दृष्टि जीव आगम मे प्राप्त किसी वचन का निषेध न करते हुए सभी का संग्रह करता है । ब. 'एकाग्रचिन्तानिरोध' का अर्थ है एक ही अग्र, अर्थ, मुख या विषय में चिन्ता को रोक देना अर्थात् स्थिर कर देना। इस विषय में प्राय: सहमति है । यहाँ चिन्ता या चिन्तन का अभाव अभीष्ट नहीं है । अन्य मतों में जो "ध्यानं १. आ त्रितयं संहननमुत्तमं वज्रर्चनाराचसंहननं वज्रनाराचसंहननं, नाराचसंहननमिति । - सर्वार्थसिद्धि 9/27 २. वज्रासंहननं, कानाराचसंहननं नाराचसननमित्येतस्मितयं सहननमुत्तमम् । - तत्त्वार्थवार्तिक 9/21

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