Book Title: Tattvartha Sutra Nikash
Author(s): Rakesh Jain, Nihalchand Jain
Publisher: Sakal Digambar Jain Sangh Satna

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Page 289
________________ तत्वार्थानिका अभाव में स्त्रियों को मोक्ष की प्राप्ति असम्भव होती तो आगम में जैसे जम्बूस्वामी के निर्माण के बाद जिनकल्प आदि के विच्छेद का उल्लेख किया जाना चाहिए था।' यहाँ शाकटायन ने स्त्रियों में 'वाद' आदि लब्धियों की योग्यता का भाव स्पष्टतः स्वीकार किया है। वादऋद्धि या वादित्वऋद्धि उस ऋद्धि को कहते हैं जिससे बहुवाद के द्वारा शक्रादि के पक्ष को भी निस्तर कर दिया जाता है।' वादादि ऋद्धियों में प्रज्ञाश्रमणत्व ऋद्धि भी समाविष्ट है। अतः सिद्ध है कि स्त्रियों को प्रज्ञाश्रमणत्व ऋद्धि की प्राप्ति का निषेध श्वेताम्बर, दिगम्बर और यापनीय आम्नायों में किया गया है, इसलिये श्री हरिभद्रसूरि का यह कथन आगमसम्मत नहीं है कि क्षपकश्रेणी का विशिष्ट परिणाम उत्पन्न होते ही स्त्रियों को 14 पूर्वो के अर्थ का बोध हो जाता है। तात्पर्य यह कि स्त्रियों को 14 पूर्वो का न तो शब्दबोध सम्भव है, न अर्थबोध अतः शुक्लध्यान भी सम्भव नहीं है। फलस्वरूप तत्त्वार्थसूत्र का 'शुक्ले चाद्ये पूर्वविद : ' सूत्र स्त्रीमुक्ति का निषेधक है। ग. और जो यह कहा गया है कि स्त्री को केवलज्ञान होता है और केवलज्ञान चतुर्दशपूर्वो के ज्ञान के बिना सम्भव नहीं है तथा स्त्री को द्वादशांग आगम के अध्ययन का निषेध है अतः अन्यथानुपपत्ति से सिद्ध होता है कि स्त्री को द्वादशांग अध्ययन के बिना ही चतुर्दशपूर्वो का अर्थबोध हो जाता है। यह अन्यथानुपपत्तिजन्य निष्कर्ष श्वेताम्बर आगमों में तो उत्पन्न हो जाता है किन्तु तत्त्वार्थसूत्र में नहीं होता। क्योंकि तत्त्वार्थसूत्र में स्त्री को केवलज्ञान होने का कहीं भी उल्लेख नहीं है । अत: तत्त्वार्थसूत्र में उसकी उपपत्ति के लिये स्त्री में चतुर्दशपूर्वो के ज्ञान को येन केन प्रकारेण उपपादित करने की आवश्यकता नहीं है। श्रीहरिभद्रसूरि ने तत्त्वार्थसूत्र को श्वेताम्बराचार्यकृत मान कर उसमें स्त्री को केवलज्ञान प्राप्ति की मान्यता अपने मन से आरोपित कर दी है और फिर स्त्री में चतुर्दशपूर्वो का ज्ञान उपपादित करने के लिए उपर्युक्त केवलज्ञानप्राप्ति का उल्लेख का अभाव सिद्ध करता है कि सूत्रकार को यह विचार मान्य नहीं है कि स्त्री को द्वादशांग आगम का अध्ययन किये for ही चतुर्दशपूर्वो का अवबोध हो जाता है इससे सिद्ध है कि तत्त्वार्थसूत्र का 'शुक्ले चाद्ये पूर्वविदः' सूत्र स्त्रीमुक्ति का निषेध का महत्वपूर्ण प्रमाण है । घ. तत्त्वार्थसूत्र में वर्णित 22 परिषहों में स्त्रीपरिषह का उल्लेख भी यह सिद्ध करता है कि सूत्रकार केवल पुरुषमुक्ति के पक्षधर हैं, उन्हें स्त्रीमुक्ति अमान्य है। यदि उन्हें स्त्रीमुक्ति मान्य होती तो स्त्रीपरिषह के समकक्ष पुरुषपरिषह का भी उल्लेख करते । स्व. डा. दरबारीलाल कोठिया ने भी तत्त्वार्थसूत्र स्त्रीमुक्ति के विरोधी होने के पक्ष में यह तर्क प्रस्तुत किया है जिस पर आक्षेप करते हुए डा. सागरमल जी लिखते हैं- 'भारतीय संस्कृति का सर्वमान्य तथ्य है कि सारे उपदेशग्रन्थ एवं नियम-ग्रन्थ पुरुष को प्रधान करके ही लिखे गए हैं किन्तु इससे स्त्री की उपेक्षा या अयोग्यता सिद्ध नहीं होती है । समन्तभद्र आदि दिगम्बर आचार्यों ने 'श्रावकाचार' लिखे हैं तथा चतुर्थ अणुव्रत को स्वदारसंतोषव्रत कहा है एवं उस १. वादविकुर्यणत्वाविलब्धिविरहे श्रुतं कनीयसि च । जिनकल्प मन: पर्यायविरहेऽपि न सिद्धिविरहोऽस्ति ॥ वादादिन्यमाववद भविष्यद्यदि व सिद्धध्यमावोऽपि । तासामवारयिष्यद्यचैव जम्बूयुगादारात् । स्त्रीमुक्तिप्रकरण, 7-8 २. जैनधर्म का मापनीय सम्प्रदाय, पृ. 347-8

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