Book Title: Tattvartha Sutra Nikash
Author(s): Rakesh Jain, Nihalchand Jain
Publisher: Sakal Digambar Jain Sangh Satna

View full book text
Previous | Next

Page 290
________________ सम्बन्ध में सारे उपदेश एवं नियम पुरुष को लक्ष्य करके ही कहे, तो उससे क्या यह मान लिया जाये कि उन्हें स्त्री व्रतधारी श्राविका होना भी स्वीकार्य नहीं?'' इस विषय में मेरा निवेदन है कि यद्यपि तत्त्वार्थसूत्रकार ने श्रावकधर्म का निरूपण करते समय पुरुषोचित व्रतों ही विधान किया है, किन्तु जैनों के तीनों सम्प्रदायों (दिगम्बर, श्वेताम्बर और यापनीय) को पुरुष के समान स्त्री का बाविका होना स्वीकार्य है, इसलिये श्रावकधर्म के पुरुषोचित व्रतों के समकक्ष स्त्रियोचित व्रतों का युक्तिबल से अनुरू कर लिया जाता है। किन्तु स्त्रियों का मुक्त होना जैनों के सभी सम्प्रदायों को मान्य नहीं है। इसलिये तत्त्वार्थसूत्र में मुनिा के अन्तर्गत जिन पुरुषोचित व्रत-नियमों का विधान किया गया है उनसे तत्समकक्ष स्त्रियोचित व्रत-नियमों का युक्ति से स्वत: अनुमान लगाना युक्तिसंगत एवं न्यायोचित नहीं है। वहाँ स्त्रीमुक्ति का प्रतिपादन किया गया है यह तभी रि हो सकता है जब मुनिव्रतों के समकक्ष स्त्रीव्रतों का भी शब्दतः या युक्तितः प्रतिपादन उपलब्ध हो। यद्यपि 'मूलाचार' स्त्रीमुक्ति प्रतिपादक नहीं है तो भी उसमें मुनियों और आर्यिकाओं के लिये विशिष्ट नियमों अलग-अलग उल्लेख किया गया है। उदाहरणार्थ- मुनियों के लिये जिस समाचार का उल्लेख किया गया है आर्यिकाओ लिये उसे ज्यों का त्यों ग्रहण न कर अपनी स्त्रीपर्याय के योग्य ग्रहण करने का उपदेश दिया गया है। मुनि को यथाजातरूपध कहा गया है और आर्यिकाओं को अविकारवत्थवेसा (विकाररहित वस्त्र और वेशधारी) आहारादि के लिए आर्यिका को तीन, पांच या सात के समूह में जाने का आदेश दिया गया है। जबकि मुनि अकेला भी जा सकता है जहाँ मुनियों गिरि, कन्दरा, श्मशान, शून्यागार और वृक्षमूल में ठहरने का विधान मिलता है, वहाँ आर्यिकाओं को उपाश्रय में र स्त्रीमुक्ति प्रतिपादक श्वेताम्बरीय आगम आचारांगादि में भी भिक्खु एवं भिक्खुणियो अथवा निर्ग्रन्थों एवं निर्ग्रन्थनि के लिए विशिष्ट नियम अलग-अलग निर्दिष्ट किये गये हैं कि जो निर्ग्रन्थ (साधु) तरुण हो, युवक हो, बलवान हो, निर हो, दृढसंहनन वाला हो, उसे एक ही वस्त्र धारण करना चाहिए, दूसरा नहीं। किन्तु निर्ग्रन्थनियों को चार संघाटिक रखनी चाहिए। एक-दो हाथ विस्तार वाली, दो तीन प्रमाण और एक चार हाथ प्रमाण । बृहत्कल्पसूत्र में निर्देश कि गया है कि सामान्य रूप से जिस उपाश्रय में जाने का मार्ग गृहस्थ के धर्म में से होकर जाता हो, वहाँ निर्ग्रन्थ-निग्रन्थी ठहरना उचित नहीं है, परन्तु विशेष परिस्थितियों में निर्ग्रन्थी को ऐसे उपाश्रय में ठहरने की अनुज्ञा है।' जहाँ भिक्खु ॐ भिक्खुणियों के लिए नियम एक जैसे हैं वहाँ दोनों को सम्बोधित करके निर्देश किया गया है। १.जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय, पृ. 347-8 २. मूलाचार, माथा 180 ३. वही, गाया 174 ४. वही, गाथा 752, 754 ५. 'जे जिग्गंथे तरुणे जुगवं बलवं अप्पयांके थिरसधयणे से एग वत्थं धारेजा, णो बिइयं । जा णिग्गथी सा चत्तारि संघाडिओ धारेज्जा -1 दहत्य-वित्थार, दो तिहत्यवित्याराओ, एग चउहत्थ-वित्थारं ।' - आचारांग, द्वितीय श्रुतस्कन्ध, अध्ययन , उद्देशक 1, सूत्र 141 ६. नो कप्पड निरगंथाणं गाहावइकुलस्स मज्झं मझेणं गंतु वत्थए। कप्पा निम्गंधीण माहावइकुलस्स मज्जा मज्झेणं गंतु वत्थुए।। - बृहत्कल्पसूत्र, 301/33-34 ७. 'से भिक्टूबा भिक्खुणी वा' - आचारांग, द्वितीयश्रुतस्कन्ध, पिण्डैषणा, 1/। सूत्र। ८. तत्वार्थाधिगमभाष्य 10/7

Loading...

Page Navigation
1 ... 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332