Book Title: Tattvartha Sutra Nikash
Author(s): Rakesh Jain, Nihalchand Jain
Publisher: Sakal Digambar Jain Sangh Satna

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Page 297
________________ 241/- निकष सतना के श्री शान्तिनाथ शान्तिनाथ भगवान की विशाल कायोत्सर्ग आसन वाली प्रतिमा श्री दिगम्बर जैन मन्दिर सतना की प्रमुख और तिशयकारी प्रतिमा है। ऐसा लगता है कि सतना की समस्त जैन समाज का सम्पूर्ण पुण्य-पुज ही सिमट कर इस नोहारी मूर्ति के रूप में यहाँ स्थिर हो गया है। ब्यौहारी से रीवा की ओर जाने वाले राजमार्ग पर, ब्यौहारी से लगभग 15 किलोमीटर पर मऊ नाम का एक छोटा ग्राम है । यही ग्राम प्रायः हजार वर्ष पूर्व एक समृद्ध कस्बा रहा होगा और इस कस्बे मे जैनो की अच्छी सख्या रही मी | शान्तिनाथ भगवान् की यह मोहक मूर्ति उसी ग्राम से लगभग पेसठ वर्ष पूर्व सतना लाई गई थी। मूर्ति का शिल्प खकर यह अनुमान होता है कि कल्चुरी राज्यकाल मे ग्यारहवीं शताब्दी ईस्वी के आसपास मऊ की टेकरी से अथवा किसी सके स्थान से प्राप्त शिला फलक पर मध्ययुगीन मूर्ति-शैली का एक उत्तम उदाहरण है। भगवान् ध्यानस्य खड़े हैं। और नके परिकर मे चामरधारी इन्द्र, पुष्पाजलि लिये हुए विद्याधर तथा मूर्ति के प्रतिष्ठापक श्रावकगण यथास्थान अंकित कये गये है। चरण-पीठिका पर कोई आलेख अकित नहीं होने के कारण तथा स्पष्ट चिह्न के अभाव के कारण यह निर्णय रना कठिन हुआ होगा कि मूर्ति किस तीर्थकर भगवन्त की है, अतः सतना मे 'शान्तिनाथ भगवान्' के नाम से उनकी पना तथा औपचारिक पूजा-प्रतिष्ठा की गई होगी। इस प्रकार अब वे निश्चित रूप से 'शान्तिनाथ' ही है। उनकी जा-आराधना से चित्त को शान्ति मिलती है और मनुष्य की सारी प्रतिकूलताएं स्वयमेव समाप्त हो जाती हैं। ब्यौहारी का निवासी हूँ। अब सतना मे ही रहता हूँ। मैंने ग्राम मे जाकर वयोवृद्ध जनो से जो जानकारी एकत्र है उसके अनुसार मऊ मे प्राचीन मन्दिर खण्डहर के रूप मे ही पाये गये थे । यह मूर्ति, कई अन्य शिल्पावशेषों के साथ म के ठाकुर की जमीन पर टिकाई हुई रखी थी। ग्रामवासी फल-फूल आदि अर्पित करके 'भीमदेव' अथवा 'भीम्रबाबा' नाम से यथाशक्ति उनकी पूजा-अर्चा करते रहते थे और यह मानते थे कि भीमादेव के कारण ही उनका ग्राम सब कार की दैवी विपत्तियो से सुरक्षित है। ब्यौहारी में तब जैनो के दो ही परिवार थे। एक मेरे पूर्वजो का, जिसमे मेरे पितामह कपूरचन्द जी और पिता र्मदास जी व चाचा अमरचन्द्र जी थे। दूसरे परिवार के प्रमुख कन्छेदीलाल जी नायक थे। ये दोनों परिवार अपने भगवान् 'समुचित व्यवस्था न कर पाने से चिन्तित रहते थे। एक दिन सबने मिलकर रीवा और सतना के जैन सज्जनों से अपनी ड़ा कही। दोनो नगरों में कुछ ऐसे लोग थे जिनकी पहुँच रीवा के महाराज तक थी, अतः मूर्ति को ग्राम से उठाकर लाने उपाय प्रारम्भ हुए, पर गाँव के ठाकुर साहब किसी भी प्रकार अपने भगवान् को वहाँ से उठवाने के लिये तैयार नहीं 1 तब समाज के लोगों ने बात महाराज तक पहुँचाई । अन्त मे महाराज के आदेश से ही मूर्ति जैन समाज के हाथ में ई। रीवा और सतना दोनों जगह के लोग भगवान् को अपने यहाँ ले जाना चाहते थे, पर महाराज गुलाबसिंह जी ने सतना जाने की अनुमति दी और इस तरह विक्रम सं0 1989-90 के बीच यह मूर्ति सतना लाई गई । 落 उन दिनों मूर्ति लाने वालों में प्रमुख नाम सेठ दयानन्द जी (विधान सेठ), सेठ धर्मदास जी, सेठ कन्हैयालाल जी और

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