Book Title: Tattvartha Sutra Nikash
Author(s): Rakesh Jain, Nihalchand Jain
Publisher: Sakal Digambar Jain Sangh Satna

View full book text
Previous | Next

Page 326
________________ तस्वार्थता-निकर्ष/270 पुतीबाई की में अनेक वर्षों तक कलकत्ता, मिर्जापुर, छतरपुर, देवेन्द्रनगर एवं द्रोणगिरि में नियमित धार्मिक शिक्षण दिया। परम पूज्य 108 मानार्थ पुष्पदन्तसागर जी महाराज जैसे संत के जीवन में धर्म के बीज का अंकुरण ब्र. पुत्तीबाई जी ने छतरपुर में धार्मिक शिक्षण के दौरान किया था। परम पूज्य 108 आचार्य श्री विमलसागर जी महाराज की प्रथम शिष्या होने का गौरव भी ब्र. पुत्तीबाई जी को है। प्रारम्भ के कुछ वर्षों तक आचार्य संघ की संचालिका का दायित्व भी निर्वहन किया। अध्ययन, अध्यापन के साथ संयम और सप उनकी जीवन शैली में था। प्रारम्भ में दो प्रतिमा एवं दीक्षापर्व तक सात प्रतिमा का सदैव सजगता से निर्दोष पालन किया। सहस्रनाम के एक हजार उपवास करने के बाद दीक्षा से पूर्व 16 वर्षों तक लगातार एक उपवास एक एकाशन के नियम को पूरी दृढ़ता से पाला। सतना बाई जी की कर्मभूमि थी। बाद के अधिकाश जीवन को उन्होंने बड़ी बहिन श्रीमती परमीबाई जैन (बाबूलाल ज्ञानचन्द जैन) छतरपुर में, देवेन्द्रनगर में एवं बड़े भाई दादा हकुमचन्द जैन (अवंती परिवार) में बिताया। आत्मकल्याण के पथ पर आगे बढ़ते हए 13 अगस्त 1992 को रक्षाबन्धन के पावन दिन तीर्थराज सम्मेदशिखर जी में परम पूज्य 108 आचार्य श्री विमलसागर जी महाराज से क्षुल्लिका दीक्षा ग्रहण की। व्रती से महाव्रती होने के बाद आत्मकल्याण करते हुये सामायिक अवस्था में संघस्थ साधुओं/आर्यिकाओ के मध्य सल्लेखना पूर्वक निर्वाणभूमि शिखरजी में 9 मई 1994 को परम पूज्य 105 तीर्थमती माता जी ने नश्वर देह का त्याग किया।

Loading...

Page Navigation
1 ... 324 325 326 327 328 329 330 331 332