Book Title: Tattvartha Sutra Nikash
Author(s): Rakesh Jain, Nihalchand Jain
Publisher: Sakal Digambar Jain Sangh Satna

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Page 286
________________ 1230/तानि यद्यपि मुक्तजीवों के आत्मप्रदेशों में रंचमात्र भी हिलना, डुलना नहीं पाया जाता, परन्तु फिर भी 'उत्पादव्ययधौव्ययुक्तं सत्' तथा 'सत्द्रव्यलक्षण' इन दोनों सूत्रों के अनुसार उनमें स्वभाव से पाये जाने वाले अगुरुलघु गुण के कारण प्रतिसमय उत्पाद, व्यय, धौव्य रूप परिणमन पाया जाता है। ऐसा नहीं कि वे अपरिणामी हो गए हों। जैसा प्रवचनसार गाथा 18 की टीका में कहा है - 'यद्यपि संसार की जन्म-मरण रूप कारण समयसार की पर्याय का विनाश हो जाता है। परन्तु केवलज्ञानादि की व्यक्ति रूप कार्यसमयसार रूप पर्याय का उत्पाद हो जाता है। और दोनों पर्यायों से परिणत आत्मद्रव्य रूप से धौव्यत्व भी बना रहता है। क्योंकि वह एक पदार्थ है अथवा दूसरी प्रकार से ज्ञेय पदार्थो में प्रतिक्षण तीनों भंगों द्वारा परिणमन होता रहता है। और ज्ञान भी परिच्छित्ती की अपेक्षा तदनुसार ही तीनों भंगों से परिणमन करता रहता है। तीसरी प्रकार से षट्स्थानगत अगुरुलघुगुण में होने वाली वृद्धिहानि की अपेक्षा भी तीनों भंग भी यहाँ जानने चाहिए।' अर्थात् मुक्त जीवों में परिस्पन्दन नहीं होता, परन्तु परिणमन तो होता ही है। कुछ जीव ऐसी भी शंका करते हुए पाए जाते हैं कि संसारी जीवों की संख्या से जब निरन्तर छह महीने आठ समय में 608 जीव मोक्ष जा रहे हैं तो कभी न कभी तो समस्त जीव राशि समाप्त हो ही जायेगी, उसका उत्तर श्री धवलाकार ने धवला पुस्तक 14 पृ. 126 -8 पर बहुत सुन्दरता से दिया है। प्रसभाव को नहीं प्राप्त हुए अनन्त निगोद जीव संभव हैं। आय रहित जिन संख्याओं का व्यय होने पर सत्त्व का विच्छेद होता है, वे संख्याएँ सख्यात और असंख्यात सज्ञा वाली होती हैं । आय से रहित जिन संख्याओं का संख्यात और असंख्यात रूप से व्यय होने पर भी विच्छेद नहीं होता है, उनको अनन्त सज्ञा है । और सब जीव राशि अनन्त है, इसलिए वह विच्छेद को प्राप्त नही होती । अन्यथा उसके अनन्त होने में विरोध आता है । सब अतीतकाल के द्वारा जो सिद्ध हुए हैं उनसे एक निगोद शरीर के जीव अनन्तगुणे है । जिस प्रकार अनन्तकाल से सूर्य का बिम्ब निरन्तर गर्मी छोड़ रहा है और फिर भी आज भी उतना ही गर्म है, उसी प्रकार अनन्तानन्त जीव राशि में से कुछ जीवों के मुक्त होने पर भी जीवों की राशि अनन्त ही रहती है।' कुछ अन्य ज्ञातव्य पांडे - 1. छह महीने आठ समय में 608 जीव मोक्ष जाते हैं और उतने ही जीव नित्य निगोद को छोड़कर चतुर्गति रूप भव को प्राप्त होते हैं। 2. यद्यपि सभी सिद्ध एकसमान हैं फिर भी क्षेत्र, काल, आदि की अपेक्षा से उनमें अन्तर भी कहा गया है। 3. दिगम्बर आम्नाय के अनुसार केवल द्रव्य पुरुषवेदी मुक्ति प्राप्त कर सकता है, द्रव्यस्त्रीवेदी नहीं। 4. पूरे 45 लाख योजन क्षेत्र से जीवों को मुक्ति होती है। 5. विदेह क्षेत्र और विजयाई पर्वतों से मुक्ति हमेशा सम्भव है, जबकि भरत एवं ऐरावत क्षेत्र की कर्मभूमियों से केवल उत्सर्षिणी और अवसर्पिणी के तीसरे काल के अन्त में, चौथे काल में और चौथे काल के उत्पन्न जीव का पंचम काल के प्रारम्भ में मोक्ष होता है।

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