Book Title: Tattvartha Sutra Nikash
Author(s): Rakesh Jain, Nihalchand Jain
Publisher: Sakal Digambar Jain Sangh Satna

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Page 268
________________ 212/तत्वार्था -निकम R चेतना का निर्मलीकरण : संबर और निर्जश के परिप्रेक्ष्य में * पं. मूलचन्द लुहाडिया तत्त्वार्थसूत्र जैन साहित्य का प्रथम संस्कृत सूत्र ग्रन्थ होने के साथ-साथ जैन तत्त्वज्ञान का व्यापक परिचय प्रदान करने वाला एक मात्र प्रामाणिक ग्रन्थ है । इस ग्रन्य में मोक्षमार्ग का तथा उसके लिए मूलत: श्रद्धा करने योग्य प्रयोजनभूत जीवादि तत्त्वों का सांगोपांग निरूपण है। तत्त्वार्थसूत्र के टीकाकार आचार्य पूज्यपाद ने सर्वार्थसिद्धि टीका की उत्थानिका में लिखा है कि अपना हित चाहने वाले किसी एक बुद्धिमान निकट भव्य ने किसी एकान्त आश्रम में ठहरे बिना बोले अपने शरीर की मुद्रा मात्र से मूर्तिमान मोक्षमार्ग का निरूपण करने वाले निर्ग्रन्थ दिगम्बर आचार्य के पास जाकर विनय पूर्वक पूछा- "भगवन् ! आत्मा का हित क्या है ? आचार्य ने उत्तर दिया - आत्मा का हित मोक्ष है।"भव्य ने फिर पूछा - 'मोक्ष का क्या स्वरूप है ओर उसकी प्राप्ति का उपाय क्या है ?' आचार्य ने कहा कि - 'जब आत्मा कर्म मल कलंक और शरीर को अपने से सर्वथा अलग कर देता है तब उसके जो अचिन्त्य स्वाभाविक ज्ञानादि गुणरूप अव्याबाध सुख की सर्वथा विलक्षण अवस्था उत्पन्न होती है उसे मोक्ष कहते हैं।' इस प्रकार आत्मा के गुणों की स्वाभाविक अवस्था रूप मोक्ष की प्राप्ति का उपाय बताते हुए आचार्य कहते हैं समीचीन श्रद्धान, ज्ञान और आचरण ही मोक्ष की प्राप्ति का उपाय है। मूलत: सात तत्त्वों का समीचीन श्रद्धान होने पर ज्ञान और चारित्र उत्पन्न और विकसित होते हैं और फलस्वरूप मोक्ष की प्राप्ति होती है। मोक्ष अथवा मक्ति आत्मा की स्वाभाविक अवस्था को कहते हैं। सख आत्मा का स्वभाव है। स्वाभाविक अवस्था पूर्णसुख की अवस्था है। वैभाविक अवस्था दु:ख रूप है। ससार परिभ्रमण दुःख रूप है। दुःख मुक्ति अथवा वैभाविक अवस्था का अभाव ही मोक्ष है जो सुख स्वरूप है। सात तत्त्वों में आमव बन्ध ये दो तत्त्व कर्मबन्ध के कारण अथवा दु:ख के कारण हैं और संवर-निर्जरा ये दो तत्त्व बन्धन के अभाव के कारण अथवा सुख के कारण हैं। आस्रव बन्ध से आत्मा कर्मों से बंधता है और उससे आत्मा मैली बनती है, कषाययुक्त होती है, दुःखी होती है। दूसरी ओर सवर-निर्जरा के द्वारा आत्मा निर्मल बनती है, कषायरहित होती है, स्वभाव में आती है अत: सुखी होती है। अत: आत्मा/चेतना का वैभाविक मैलेपन से छुटकर स्वाभाविक निर्मलता को प्राप्त करना ही मोक्ष प्राप्त करना है। उस आत्मा/चेतना के निर्मलीकरण की प्रक्रिया ही संवर-निर्जरा कहलाती है। तत्त्वार्थसूत्रकार ने ग्रन्थ के नवम अध्याय में मोक्ष की कारणभूत उस चेतना के निर्मलीकरण की प्रक्रिया का अर्थात् संवर-निर्जरा तत्त्व का वर्णन किया है। नवम अध्याय के प्रथम सूत्र में संबर तत्त्व का लक्षण कहा गया है। 'मासवनिरोधः संवरः' आसव का निरोध करना संवर है। आत्मप्रदेशों की ओर कर्मवर्गणाओं का आकर्षित होकर आना आसव कहलाता है। मन, वचन, काय की क्रिया ही योग है जिसके कारण आत्मप्रदेशों का परिस्पन्दन होता है। आत्मप्रदेशों के परिस्पन्दन से अबद्ध कार्मणवर्गणाएं * लुहाडिया सदन, जयपुर रोड, मदनगज-किशनगढ़ (अजमेर)

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