Book Title: Tattvartha Sutra Nikash
Author(s): Rakesh Jain, Nihalchand Jain
Publisher: Sakal Digambar Jain Sangh Satna

View full book text
Previous | Next

Page 270
________________ 214/तस्वार्थसूता-निका है। ऊपर संवर का प्रथम कारण योगप्रवृत्ति का निग्रह करना कहा है। जो वैसा करने में असमर्थ है उसके लिए वनाचारपूर्वक प्रवृत्ति करने के रूप में संवर के दूसरे कारण का विधान किया गया है। समितियों में प्रवृत्ति करने वाले के प्रमाद का परिहार करने के लिए धर्म को संवर के तीसरे कारण के रूप में बताया गया है। समितियों की पालना के बाद भी परिणामों की शद्धि के लिए दश धर्मों का जीवन में पालन संवर के चौथे कारण के रूप में बताया गया है। लौकिक प्रयोजन का निषेध करने के लिए एव जीवन में तत्त्वज्ञान की भूमिका पूर्वक आध्यात्मिक प्रयोजन की दृष्टि रखने के लिए क्षमादि धर्मों के पहले उत्तम विशेषण का प्रयोग किया गया है। धर्मो में स्थिरता कषायों की हानि और परिणामों में वैराग्य की दृढ़ता लाने के लिए संवर के पाँचवें कारण के रूप में अनुप्रेक्षा का विधान है। भोगासक्ति, देहासक्ति, परिग्रहासक्ति, स्वजनासक्ति के अनादिकालीन दृढमूल संस्कारों की क्षीणता के लिए एवं तत्त्व श्रद्धान की पुष्टता के लिए निरन्तर बार-बार चिन्तन करने योग्य अनुप्रेक्षाएँ हैं । यह देह, इन्द्रिय, विषय, भोगोपभोग योग्य पदार्थ, बाह्य वैभव सपत्ति, जल के बुबुद् के समान अनवस्थित स्वभाव वाले होते हैं। मोहवश यह अज्ञ प्राणी इनको नित्य समझता है । वस्तुत: आत्मस्वभाव के अतिरिक्त सभी पर पदार्थ अधुव हैं, ऐसा चिन्तन अनित्यानुप्रेक्षा है। इस प्रकार चिन्तन करने वाले भव्य के पर से अनासक्ति होने से पर-पदार्थों के वियोग में संताप नहीं होता है। जिस प्रकार एकान्त में क्षुधित मांसभोजी बलवान् व्याघ्र के द्वारा दबोचे गए मृगशावक के लिए कोई शरण नहीं होता उसी प्रकार जन्म-जरा-मृत्यु आदि दुःखों से घिरे हुए इस जीव को संसार में कोई शरण नहीं है । धन, मित्र, बाधव, मन्त्र, तन्त्र, कोई भी इसकी मरण से रक्षा नहीं कर पाते । केवल धर्म शरण है ऐसा चिन्तन अशरणानप्रेक्षा है। ससार मे वैभवशाली व्यक्ति तृष्णा के कारण और दरिद्री अभाव के कारण दुःखी है। तत्त्वदृष्टि प्राप्त हुए बिना पर-पदार्थ के प्रति रही आई आसक्ति के कारण सभी जीव दु:खी हैं। इस प्रकार संसार के स्वभाव का चिन्तन करना संमारानुप्रेक्षा है। ऐसे चिन्तन से साधक के मन में संसार से निर्वेद उत्पन्न होता है और वह संसार से निर्विण्ण होकर आत्मा के निर्मलीकरण में अधिक उत्माह से संलग्न होता है। मोक्षपथगामी वह साधक अपने को अकेला अनुभव करता है। मैं अकेला ही जन्म लेता है, मरता हूँ और अकेला ही सुख-दुःख का अनुभव करता है। यह एकत्वानुप्रेक्षा का चिन्तन है। ऐसे चिन्तन से स्वजनों के प्रति गग एवं पर जनों के प्रति द्वेष के भाव उत्पन्न नहीं होते और आत्म स्वातन्त्र्य की श्रद्धा से अपने उत्थान के लिए अपने भीतर आत्मबल की वृद्धि होती है। जब यह देह ही मेरी नहीं है, एक दिन छुट जाती है तो अन्य स्पष्ट पर-पदार्थ मेरे कैसे हो सकते हैं ? इस प्रकार का चिन्तन अन्यत्वानुप्रेक्षा है। इस चिन्तन से देहादिक से ममत्व छट जाता है और तत्त्व ज्ञानपर्वक वैराग्य की प्रकर्षता से संवर-निर्जरा के द्वारा मोक्षपथ पर पद बढ़ते जाते हैं। यह देह अत्यन्त अशचि पदार्थों का पिण्ड है। अतिदर्गन्ध रस को प्रवाहित करता रहता है। अशुचित पदार्थों द्वारा निर्मित इस देह को स्नानादि से कदापि शचि नहीं किया जा सकता । रस्मत्रय की साधना से पवित्र हुई आत्मा के संसर्ग से कथंचित् देह भी शुचि की जा सकती है। यह अशुचि अनुप्रेक्षा का चिन्तन है। इस चिन्तन से देहासक्ति क्षीण होकर स्वात्मलीनता प्राप्त होती है। इन्द्रिय, भोग, अव्रत और कषाय रूप आसव इस आत्मा को मैला करता है और इसीलिए जीव को दुःख देने वाला है। आसवानुप्रेक्षा का चिन्तन आत्मा में आसव के कारणों के त्याग और सेवर के कारणों के ग्रहण की प्रेरणा देता है। दु:ख के कारण रूप आस्रव से अपने को बचाकर सुख के कारण संवर के गुणों को निरन्तर चिन्तन करना संवरानुप्रेक्षा है। संवर के साथ-साथ साधक निर्जरा के गुणों का भी चिन्तन करता है। कर्मफल के विपाक से होने वाली अबुद्धिपूर्वक निर्जरा मोक्षमार्ग में निर्जरा तत्त्व के रूप में ग्राह्य नहीं है। किन्तु परीषहविजय और तपाराधना के द्वारा कुशलमूला अविपाकनिर्जरा ही आत्मा के स्वभाव प्राप्ति में कार्यकारी है। यह चिन्तन निर्जरानुप्रेक्षा है। लोक की रचना एवं व्यवस्था का चिन्तन लोकानुप्रेक्षा है जो साधक के तत्वज्ञान को

Loading...

Page Navigation
1 ... 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332