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तत्वार्थसूत्र-शिक / 20 अर्थात् जिसमें अतिविशुद्ध गुण होते हैं, कर्मों का उपशम तथा क्षय होता है और शुक्ल लेश्या होती है, वह शुक्लध्यान है।
भेद - 1. पृथक्त्ववितर्क, 2. एकत्ववितर्क, 3. सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति और 4. व्युपरतक्रियानिवर्ती ये के चार भेद हैं। (सूत्र 39 )
'शुक्लध्यान
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आचार्य उमास्वामी ने 'शुक्ले चाद्ये पूर्वविदः' | 37 ॥ तथा 'परे केबलिनः ' ॥ 38 ।। इन दो सूत्रों में कहा है कि पूर्वोक्त चार में से आरम्भ के दो शुक्लध्यान पूर्वविद् अर्थात् पूर्वज्ञानधारी श्रुतकेवली के होते हैं। तथा अन्त के दो अर्थात् सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती एव व्युपरतक्रियानिवर्ती - ये दो शुक्लध्यान क्रमशः सयोगकेवली और अयोगकेवली जिन के होते हैं । चारो का स्वरूप इस प्रकार है - 1. पृथक्त्ववितर्कवीचार वस्तु के द्रव्य, गुण और पर्याय का परिवर्तन करते हुए चिन्तन करना पृथक्त्व है यह उपशान्तकषाय नाम के 11 वें गुणस्थान में होता है। 2. एकत्ववितर्क अवीचार - यह ध्यान व्यञ्जन और योग के संक्रमण से रहित वस्तु के किसी एक रूप को ध्येय बनाने वाला होता है। अतः किसी एक अर्थ, गुण या पर्याय का आश्रय लेकर चिन्तन करना एकत्ववितर्क अवीचार है। मूलाचार (5/207) के अनुसार यह ध्यान क्षीणमोह नामक बारहवें गुणस्थानवर्ती जीवों को होता है।
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3. सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती - कार्तिकेयानुप्रेक्षा ( 484 ) के अनुसार केवलज्ञान स्वभाव वाले सयोगी जिन जब सूक्ष्म काययोग में स्थित होकर ध्यान करते हैं तब यह ध्यान होता है। इसकी विशेषता यह है कि इसमें श्वासोच्छ्वास क्रिया भी सूक्ष्म रह जाती है तथा इसकी प्राप्ति के बाद योगी अपने ध्यान से कभी गिरते नहीं हैं, अतः इसे सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती कहते । यह तेरहवें सयोगकेवलीजिन नामक गुणस्थान मे होता है। यह ध्यान त्रिकालवर्ती अनन्त सामान्य-विशेषात्मक धर्मो से युक्त छह द्रव्यों का एक साथ प्रकाशन करता है अतः सर्वगत है।
4. समुच्छिनक्रियानिवर्ति भगवती आराधना ( 1889 ) अनुसार काययोग का निरोध करके अयोग केवली औदारिक, तैजस और कार्मण शरीरों का नाश करता हुआ इस चतुर्थ शुक्लध्यान को ध्याता है। इस ध्यान में क्रिया अर्थात् योग सम्यक् रूप से उच्छिन्न हो जाते हैं और यह चौदहवे अयोगकेवली नामक गुणस्थान में होता है। यह परम निष्कम्प रत्नदीप की तरह समस्त क्रियायोग से मुक्त ध्यान की दशा को प्राप्त होने पर पुनः उस ध्यान से निवृत्ति नही होती । इसीलिए इसे समुच्छिन्नक्रिया निवर्ति कहते है । (मूलाचार 5/208 सवृत्ति) चौदहवे गुणस्थान का स्थितिकाल अ, इ, उ, ऋ, लृ - इन पॉच ह्रस्वाक्षरो के उच्चारण काल प्रमाण है। (भ. आ. 2124) इस प्रकार शुक्लध्यान के इन चार भेदों मे आरम्भ के दो शुक्लध्यान के आलम्बन सहित है शेष दो ध्यान निरालम्ब है ।
इस प्रकार ध्यान विषयक अवधारणाओ का तत्त्वार्थसूत्र के परिप्रेक्ष्य में तुलनात्मक विवेचन बहुत ही महत्त्वपूर्ण है । परवर्ती साहित्य में ध्यान की अनेक पद्धतियों का विकास के मूलबीज इसी तत्त्वार्थसूत्र में निहित हैं। आध्यात्मिक उत्कर्ष की प्राप्ति हेतु ध्यान एक दिव्य रसायन का कार्य करता है। इसीलिए अमितगति श्रावकाचार (15/78) मे कहा है - सिद्धि प्राप्ति के इच्छुक जनों को ध्यान करने से पूर्व ध्यान के साधक, साधन, साध्य और फल - इन चारों का विधिपूर्वक ज्ञान कर लेना चाहिए। क्योंकि संसारी भव्य पुरुष ध्यान का साधक होता है, उज्ज्वल ध्यान साधन है, मोक्ष साध्य है तथा अविनश्वर सुख ध्यान का फल है।
इस प्रकार ध्यान भले ही चार प्रकार के हों, किन्तु चारों ध्यान तप नहीं हैं। तप की कोटि में सिर्फ दो ही ध्यान हैंधर्म और शुक्लध्यान। बाकी जितने तप हैं, वे सब ध्यान के साधन मात्र कहे जा सकते हैं । (षट्खण्डागम पु. 13 पृ.64)