Book Title: Tattvartha Sutra Nikash
Author(s): Rakesh Jain, Nihalchand Jain
Publisher: Sakal Digambar Jain Sangh Satna

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Page 257
________________ ध्यान के रूप में ध्यान के दो भेद करके आर्त और रौद्रध्यान को अप्रशस्त तथा धर्म और शुक्ल - इन दो ध्यान को प्रशस्त ध्यान की कोटि में रखा है। किन्तु आचार्य उमास्वामी ने इनका प्रशस्त और अप्रशस्त विभाजन न करके परे मोक्षहेतू अर्थात इन चार में से अन्त के दो ध्यान मोक्ष के कारण हैं। इसी कथन के माध्यम से ध्यान की प्रशस्तता-अप्रशस्तता का संकेत आचार्य उमास्वामी ने कर दिया कि धर्म और शुक्ल - ये दो ध्यान मोक्ष के हेतु होने से प्रशस्त हैं तथा आर्त और रौद्र - ये दो आरम्भ के दो ध्यान मोक्ष के हेतु न होने से अप्रशस्त ध्यान हैं। षटखण्डागम की धवला टीका (13/5. 4. 26/64/5) में कहा है - 'तत्पजाणे पसारि बहियारा होतिध्याता प्रेमं ध्यानं ध्यानफलमिति' अर्थात् ध्यान के विषय में चार अधिकार हैं - ध्याता, ध्येय, ध्यान और ध्यानफल । आचार्य उमास्वामी ने इन चारों का अलग से प्रतिपादन तो नहीं किया, किन्तु तत्त्वार्थसूत्र के इसी नवें अध्याय के सूत्र सं. 27 के साथ ही 'मारीद्रधर्माशुक्लानि' तथा 'परे मोक्षहेतू' इन 28 एवं 29 वें सूत्र के द्वारा इन चारों अधिकारों को समाहित कर लिया। इन चारों का स्वरूप इस प्रकार है - 1. आध्यान सर्वार्थसिद्धि (9/28/874) में कहा है - 'ऋतं दुःखम, अर्दनमर्तिर्वा तत्र भवनातम्' अर्थात् ऋत का अर्थ द:ख है और अर्तिका अर्थ पीडा है, अत: इनसे होने वाला ध्यान आर्तध्यान है। इसीलिए सत्रकार ने कहा अनिष्टसंयोगज, इष्टवियोगज, वेदनाजन्य और निदान - इस तरह इसके चार भेद किये हैं। प्रथम आर्त के लक्षण में कहा ___1. मार्तममनोजस्य सम्प्रयोगे तविप्रयोगाय स्मृतिसमन्वाहारः ।। 30 ।। अर्थात् अमनोज्ञ पदार्थ के प्राप्त होने पर उसके वियोग के लिए चिन्ता-सातत्य का होना प्रथम मनिटसंयोगज आर्तध्यान है। 2. 'इष्टवियोगज' नामक द्वितीय आर्तध्यान के लक्षण के कहा है - विपरीतं मनोजस्य ॥ 31 ।। अर्थात् मनोज वस्तु के वियोग होने पर उसकी प्राप्ति की सतत् चिन्ता करना दूसरा इष्टवियोगज आर्तध्यान है। 3. वेदनायाश्च ।। 32 ।। अर्थात् सुख-दुःख के वेदन रूप वेदना के होने पर उसे दूर करने के लिए सतत् चिन्ता करना वेदना आर्तध्यान है। 4. निदानशा ।। 33 ।। अर्थात् अनागत भोगों की वाछा के लिए मन:प्रणिधान होना निदान नामक चतुर्थ आर्तध्यान आर्तध्यान के इन चार भेदों के बाद तत्त्वार्थसूत्र में आर्तध्यान किन जीवों को होता है ? इसका प्रतिपादन करते हुए कहा है - 'तदविरतदेशविरतप्रमत्तसंपतानाम्' ।। 34 ।। अर्थात् वह आर्तध्यान 1. अविरत, 2, देशविरत (पंचमगुणस्थानवर्ती श्रावक) तथा 3. प्रमत्तसंयत (छठा गुणस्थानवर्ती) जीवों के होता है । यहाँ अविरत से तात्पर्य मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र और असंयतसम्यग्दृष्टि - इन चार गुणस्थानवी जीवों से है। यहाँ यह दृष्टव्य है कि प्रमत्तसंयत नामक छठे गुणस्थानवर्ती मुनियों के निदान को छोड़कर बाकी के तीन ध्यान प्रमाद की तीव्रतावश कदाचित् होते हैं। सामान - ___ भाचार्य उमास्वामी ने ऐवध्यान के लक्षण, भेद और स्वामी को एक ही सूत्र के माध्यम से कहा है - विसावस्यविनवतरणनेच्यो मिविस्त-देवगिरवयोः ।। 3 ।। अर्थात हिंसा, असत्य, बोदी और विषयसंरक्षण के लिए सतत् चिन्तन करना रौद्धध्यान है। वह अविरत और देशविरत के होता है।

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