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तस्वार्थसूत्रकार ने प्रकारान्तर से कुन्दकुन्द का अनुकरण कर पदार्थ के अधिगम के लिए प्रमाण और मयों आवश्यक माना । उन्होंने मयों और उन सब भेदों का भी निरूपण किया है, जो द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक इन दो मूल मयों में अन्तर्भूत हैं। उनकी दृष्टि में नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूट और एवंभूत ये सात नय हैं। इसमें प्रथम तीन द्रव्य को विषय करने के कारण द्रव्यार्थिक और ऋजुसत्र आदि अन्तिम तीन पर्याय को विषय करने के कारण पर्यायार्षिक माने जा सकते हैं। सम्भवत: इसी अभिप्राय को ध्यान में रखकर 'मुगपर्यमवयम्' इस सूत्र का.सजन
तस्वार्थसूत्रकार ने नय का स्वरूप बताने के लिए कोई पृथक सूत्र तो नहीं बनाया है परन्तु उक्त सात भेदों का प्रतिपादन कर उत्तरवर्ती आचार्यों के लिये मार्गदर्शन जरूर दिया है। पूज्य मुनि श्री प्रमाणसागर जी महाराज ने इन सात नयों के सम्बन्ध में जैनतत्वविद्या में नयों की उपयोगिता एवं उदाहरण देकर सात नयों की सूक्ष्मता का प्रतिपादन किस प्रकार किया है सो दृष्टव्य है -
वस्तुबोध की अनन्त दृष्टियों का सात दृष्टियों में वर्गीकरण करने के कारण नय सात ही माने गए हैं। यह वर्णन पूर्ण रूप से व्यावहारिक है और इसके द्वारा जगत् का व्यवहार सम्यक् रूप से संचालित हो सकता है।
इस प्रकार, इन सात नयों के द्वारा जगत का समस्त व्यवहार संचालित होता है। इनमें आदि के चार नय को अर्थ नय कहते हैं, क्योंकि ये अर्थात्मक पदार्थ का विचार करते है। शब्द, समभिरूढ और एक्भूत ये लीन नय शब्द नय हैं। शब्दनय शब्दात्मक पदार्थों पर विचार करता है। इन सातों नयों के विषय उत्तरोत्तर सूक्ष्म-सूक्ष्म हैं। नयों की विषयगत सूक्ष्मता को इस उदाहरण से सुगमता से समझाया जा सकता है। ___कोई व्यक्ति घर से पूजन करने के लिए मन्दिर की ओर जा रहा है, उसे देखकर कहना कि पुजारी जी मन्दिर जा रहे हैं, मैगम नय का विषय है, मन्दिर पहुंचकर पूजा योग्य द्रव्य का संग्रह करते हुए व्यक्ति को पुजारी कहना शहबय का विषय है। पूजा योग्य समस्त द्रव्यों का वर्गीकरण/विभाजन करते वक्त उस व्यक्ति को पुजारी कहना व्यवहार नय का विषय है। पूजा की क्रिया में प्रवृत्त व्यक्ति को पुजारी कहना ऋजुसूत्रनय का विषय है। शब्द नय शब्दात्मक पदार्थ का विचार करता है। उस नय की दृष्टि से पूजा करने वाले व्यक्ति को पुजारी कहा जा सकता है, पुजारित नहीं, उसे उपासक, अर्चक, आराधक आदि विभिन्न शब्दों से सम्बोधित किया जा सकता है, पर पुरुष को स्त्रीवाची शब्दों से नहीं, एक व्यक्ति को बहुवचन में नहीं, वर्तमान काल की बात को अतीत और अनागत के अर्थ में नहीं। समभिरूढ नय शब्द नय से भी सूक्ष्म है। इस नय की दृष्टि में पुजारी का अर्थ पूजा करने वाला है। यद्यपि पूजा करने वालों को उपासक, आराधक, पूजक, अर्चक आदि अन्य नामों से भी सम्बोधित किया जा सकता है, लेकिन समभिरूढ नय शब्द के पर्यायवाची शब्दों को न स्वीकार कर प्रत्येक शब्द के प्रधान अर्थ को ही ग्रहण करता है । एवंभूतनय का विषय सबसे सूक्ष्म है, इस नय के अनुसार पूजा करने वाला पुजारी कहा जा सकता है, पर तभी जब वह पूजा की क्रिया कर रहा है। दुकान चलाते वक्त वह व्यक्ति व्यापारी कहलाएगा, पुजारी नहीं। यह नय भिन्न-भिन्न क्रिया की अपेक्षा भिन्न-भिन्न नाम देता है।
इस प्रकार ये सातों नयों के विषय यद्यपि एक-दूसरे से भिन्न दिखाई पड़ते हैं, फिर भी ये एक-दूसरे के विरोधी न होकर परिपूरक हैं, क्योंकि एक नय-दूसरे नय के विषय को गौण तो करता है, पर उसका निराकरण नहीं करता। एक
विषय को मुख्य-गौण भाव से स्वीकार करने वाले नय सुमय तथा परस्पर विरोधी नय दुर्वय कहलाते हैं। इस प्रकार सत्यासत्रकार ने प्रमाण-नय की विवेचना कर उत्तरवर्ती आचार्यों को मार्गदर्शन तो किया ही है साथ में आगम व्यवस्था का भी समन्वय किया है।