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तत्वार्यानिक / 71 ऊपर के निवेकों का द्रव्य उदवावलीविये देना देवायु और नरकायु के सम्बन्ध में उदीरणा है न कि बाह्य विमित से मरण का नाम उदीरणा है।.
देव, नारकी, वरमशरीरी और असंख्यातवर्षायुष्क (भोमभूमिया) जीवों की आयु विषशस्त्र आदि विशेष बाह्य कारणों से ह्रस्व ( कम ) नहीं होती इसलिए वे अनपवर्त्य हैं। इनका मरण जन्म से ही व्यवस्थित है किन्तु कर्मभूमिया जीवों का मरण व्यवस्थित नहीं है। क्योंकि जिस कर्मभूमिया मनुष्य या तिर्यच ने अगले भव की आयु का बन्ध नहीं किया है, उसकी आयु का क्षय बाह्य निमित्त से हो सकता है। अकालमरण में भी आयुकर्म के निषेक अपना फल असमय मे देकर झड़ते हैं, बिना फल दिए नहीं जाते हैं। आचार्य अकलंकदेव तत्त्वार्थसूत्र के द्वितीय अध्याय के 53 वें सूत्र व्याख्या करते हुए कहा है - "आयु उदीरणा में भी कर्म अपना फल देकर ही झड़ते हैं, अतः कृतनाश की आशका उचित नही हैं। जैसे गीला कपड़ा फैला देने पर जल्दी सूख जाता है, और वही यदि इकट्ठा रखा रहे तो सूखने में बहुत समय लगता है, उसी प्रकार बाह्य निमित्तों से समय से पूर्व आयु के निषेक झड़ जाते हैं, यही अकालमृत्यु है ।""
सर्वज्ञ के उपदेश द्वारा अकालमरण सिद्ध हो जाता है -
आयुर्वस्यापि देवज्ञैः परिज्ञाते हितान्तके । तस्थापि क्षीयते सको निमित्तान्तरयोयतः ॥
सारसमुच्चय६७ सारसमुच्चय ६७ भविष्य के भाग्य - ज्ञाता द्वारा किसी (कर्मभूमिज) की आयु का हितान्त अर्थात् अमुक समय पर मरण होगा, ऐसा जान भी लिया जावे तो भी विपरीत निमित्तों के मिलने पर उसकी आयु का शीघ्र क्षय हो जाता है।
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जैनाचार्यों ने सोपक्रमायुष्क (अपमृत्यु) जीवों का विस्तृत विचार आचार्य श्री उमारवामी द्वारा लिखित "औपपादिकचरमोत्तमदेहाऽसंस्पेय- वर्षायुषोऽमपवर्षायुषः " सूत्र के आधार पर किया है। क्योंकि इस सूत्र में अपवर्त्य ( निरुपक्रमायुष्क) जीवों का कथन होने से उनसे प्रतिपक्षी जीवों का प्रतिपादन क्रम प्राप्त है। आचार्य पूज्यपाद ने उक्त सूत्र की व्याख्या में लिखा है कि औपपादिक आदि जीवों की आयु बाह्य निमित्त से नहीं घटती यह नियम है तथा इनसे अतिरिक्त शेष जीवों का ऐसा कोई नियम नहीं है। यदि कारण मिलेंगे तो आयु घटेगी और कारण न मिलेंगे तो आयु नहीं घटेगी।
भास्करनन्दि भी इसी बात की पुष्टि करते हैं- 'औपपादिक से जो अन्य ससारी जीव हैं, उनकी 'अकालमृत्यु भी होती है ।" इसी क्रम में भट्टाकलंकदेव, आचार्य विद्यानन्दि, कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य वीरसेन आदि सभी आचार्यों ने आचार्य उमास्वामी द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्त का समर्थन किया है ।
आचार्य उमास्वामी के परवर्ती आचार्यों को अकालमरण के सन्दर्भ में विशेष दृष्टि मिली। उनसे प्राप्त
१. दत्वैव फलं निवृत्तेः माकृतस्य कर्मणः फलमुपभुज्यते, न च कृतकर्मफलविनाश: अनिर्मोक्षप्रसङ्गात् दानादिक्रियारम्भाभावप्रसङ्गाच किन्तु कृतं कर्म कर्म फलं दत्वैव निवर्तते वितताईपटशोषयत् अयथाकालनिर्वृतः पाक इत्ययं विशेष: । - तत्त्वार्थवार्तिक, 2/53 की टीका
२. नवमीपपादिकादीनां बाह्यनिमित्तवशादायुरपनत्वति इत्यये नियमः इतरेषामनियमः 1- स. सि. 2/53
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३. योन्ये तु संसारिणः सामर्थ्यादपवर्त्यायुषोऽपि भवन्तीति गम्यते ।