Book Title: Tattvartha Sutra Nikash
Author(s): Rakesh Jain, Nihalchand Jain
Publisher: Sakal Digambar Jain Sangh Satna

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Page 179
________________ 1123 13. The standard books written by jain Acharyas contain principles of good govimance, excellent corporate culture and ideal human conduct. The researchers should study all these books and the laws of the land and find out the similarities and aspects of interdependence between the law laid down by our great saints in books like Tattvarth Sutra and codified law laid down by the Constitution of India and by the Acts enacted by Indian Parliament and State Legislative Assemblies of all States of India. 14. In the end, I would like to make the humble submission that Jain code of conduct enshrined in Tattvarth Sutra and similar books, made members of Jain community better, nire responsible and more successful citizens and better human beings. Consequently the Jains excel in their professions not only in this country but in the whole world. आहार के उपरान्त पूज्य मुनिश्री मन्दिर जी में शान्तिनाथ वेदिका के बगल में बैठते थे, पीछे के दरवाजे से आने वाली शीतल वायु उन्हें आनन्द देती। उनके तीनों तरफ भक्तों की भीड़ उन्हें घेर लेती। उस दिन जिस घर में उनके आहार हुये होते. उस परिवार के सभी सदस्यों का उत्साह और उमंग देखते ही बनती थी। लोग प्रश्न करते, मुनिश्री त्वरित उत्तर देते । प्रश्न-उत्तर का यह कार्यक्रम पूरे चातुर्मास काल में अबाधरूप से चलता रहा। एक दिन मैंने पूज्य मुनिश्री से साक्षात्कार लेने का उपक्रम किया। टेपरिकार्डर और माइक की व्यवस्था की, | लेकिन शोरगुल के कारण व्यवस्थित ढंग से रिकार्ड नहीं हो सका। फिर भी पूज्य मुनिश्री से हुये साक्षात्कार के कुछ रोचक अंश यहाँ प्रस्तुत हैं - १. प्रश्न परम पूज्य गुरुदेव ! बाल्यावस्था में आप पढ़ने के साथ-साथ क्या खेल में भी रुचि रखते थे ? उत्तर- हाँ, रखता तो था । प्रश्न- किस खेल में ? उत्तर- फुटबाल खेला हूँ । प्रश्न- महाराज श्री, आपको इतने सारे खेलों में फुटबाल ही क्यों पसन्द आई ? कोई विशेष कारण था क्या? उत्तर- हाँ, यह ताकत और क्षमता का खेल है। फुटबाल को आप ज्यादा देर अपने पास नहीं रखते, एक जोरदार किक लगाकर उसे उसके गन्तव्य (विरोधी गोल) तक पहुँचाने का प्रयास करते हैं। गेंद के लिये आप लपकते हैं, छीनाझपटी भी करते हैं, पर डालते उसे विरोधी गोल में ही हैं। प्रश्न - तो महाराज श्री, इससे क्या सीख लें ? उत्तर- मन्तव्य बहुत स्पष्ट है, आसक्ति नहीं। अनासक्ति रखो। फुटबाल को जितनी ज्यादा देर अपने पास रखने की कोशिश करोगे, वह तुमसे छिन जायेगी। हाँथ से पकड़ने की कोशिश फाउल करार देगी। गोलकीपर भी एक समय सीमा से अधिक गेंद को अपने पास नहीं रखता । प्रश्न- पूज्य गुरुदेव ! तो क्या हम सभी यही समझें कि आपने घर-परिवार रूपी फुटबाल को एक बार ही जोरदार किक लगाकर सफलता पाई और संसार रूपी फुटबाल के प्रति आसक्ति को तोड़कर मुक्ति लक्ष्मी रूपी ट्राफी प्राप्त करने के मार्ग पर चल पड़े हैं ? उपस्थित भक्तों की खिलखिलाहट और जय ध्वनि ।

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