________________
प्रथम और पंचम अध्यायों में ज्ञान एवं द्रव्य की विशेष चर्चा करने से दार्शनिकता का आधिक्य समावेशित हो गंवा है। इसके प्रत्येक अध्याय के दार्शनिक विषय वाले प्रत्येक सूत्र की व्याख्या लिखते समय उन्होंने 'अनेकान्तात्' जैसे वार्तिक से दार्शनिक समाधान प्रस्तुत करने की कुशलता प्रदर्शित की है।
सर्वार्थसिद्धि को आधार बनाकर ही तस्वार्थवार्तिक का भव्य प्रासाद निर्मित हो सका है। इस प्रासाद का आधार भी नव-नूतनता से आप्लावित है। विशेषता यह है कि सर्वार्थसिद्धि में जिन दार्शनिक चर्चाओं को स्थान नहीं मिल पाया है वे तो इसमें सामिल हैं ही, साथ ही वे विषय भी यहाँ संयोजित हैं जो उनके समय तक चर्चित हो रहे थे । यथा - सर्वार्थसिद्धि में सान्निपातिक भावों की चर्चा ही नहीं है। जबकि श्वेताम्बर आगमों में इनका उल्लेख है। इसे स्पष्ट किया गया है कि यह कोई पाँच से अतिरिक्त भाव नहीं है। अपितु इसे मिश्र नाम के भाव में ही अन्तर्गर्भित समझना चाहिए।' आचार्य अकलंकदेव इतना ही कह कर शान्त नहीं होते अपितु उन सान्निपातिक भावों के भेद को प्रकट करने वाली एक कारिका प्रस्तुत कर उनके भेदों को स्पष्ट कर दिया है ।
इस ग्रन्थ की विशेषताओं के विषय में जैनदर्शन के प्रज्ञापुरुष प. सुखलाल संघवी ने लिखा है- 'राजवार्तिक और श्लोकवार्तिक के इतिहासज्ञ अभ्यासी को मालूल पड़ेगा कि दक्षिण हिन्दुस्तान में जो दार्शनिक विद्या और स्पर्धा का समय आया और अनेकमुख पाण्डित्य विकसित हुआ, उसी का प्रतिबिम्ब इन दोनों ग्रन्थों में है। प्रस्तुत दोनों वार्तिक जैनदर्शन का प्रामाणिक अभ्यास करने के पर्याप्त साधन । इनमें 'राजवार्तिक' का गद्य सरल और विस्तृत होने से तस्वार्थ के सम्पूर्ण टीकाग्रन्थों की गरज अकेला ही पूर्ण करता है। ये दो वार्तिक नहीं होते तो दशवीं शताब्दी तक के दिगम्बर साहित्य जो विशिष्टता आयी, और उसकी जो प्रतिष्ठा बँधी वह निश्चय से अधूरी ही रहती।"
राजवार्तिक के विषय प्रतिपादन की विशेषता का निदर्शन कराने के लिए ऐसे उदाहरण लिये जा सकते हैं - प्रमाणनयार्पणाभेदात् एकान्तो द्विविधः - सम्यगेकान्तो मिथ्यैकान्त इति । अनेकान्तोऽपि द्विविधः सम्यगनेकान्त मिथ्यानेकान्त इति । तत्र सम्यगेकान्तो हेतु विशेषसामर्थ्यापेक्ष: प्रमाणप्ररूपितार्थैकदेशादेश: । एकात्मावधारणेन अन्याशेषनिराकरणप्रवणप्राणिधिर्मिथ्यैकान्तः । एकत्र सप्रतिपक्षानेकधर्मस्वरूपनिरूपणो युक्त्यागमाभ्यामविरुद्धः सम्यगनेकान्तः । तदतत्स्वभाववस्तुशून्य परिकल्पितानेकात्मकं केवलं वाग्विज्ञानं मिथ्याऽनेकान्तः । तत्र सम्यगेकान्तो नय इत्युच्यते । सम्यगनेकान्तः प्रमाणम्। नयार्पणादेकान्तो भवति एकनिश्चयप्रवणत्वात् प्रमाणार्पणादनेकान्तो भवति अनेकनिश्चयाधिकरणत्वात् ।
आचार्य अकलंकदेव द्वारा रचित गद्य वार्तिक की यह विशेषता है कि जहाँ उन्होंने सर्वार्थसिद्धि के वाक्यों को वार्तिक के रूप में समाहित किया है वहीं नवीन वार्तिकों का निर्माण भी किया है। इस ग्रन्थ का पाठक यह प्रतीति ही नहीं कर पाता कि वह प्रकारान्तर से सर्वार्थसिद्धि का भी अध्ययन कर रहा है। उन दोनों प्रकार के वार्तिकों पर व्याख्या या भाष्य भी लिखा है । इसी कारण इसकी पुष्पिकावाक्यों में इसे तत्वार्थवार्तिकव्याख्यानालंकार जैसी संज्ञा प्रदान की गयी
है।
इसके विभाजन को अध्यायों के अन्दर भी आशिक के माध्यम से किया गया है।
-
१. तस्वार्थवार्तिक, २/७/२१-२
२. तत्त्वार्थसूत्र, प्रस्तावना, पृ. ७८-९.
१. तत्वार्थवार्तिक १/६.