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कमावयोगात्प्राणानां द्रव्यमायक्रपाणाम् । परोपकरणं सुनिश्चिता भवति सा हिंसा | अप्रादुर्भावः वसु रागादीनां भवत्यहिंसेति सेवामेोत्पतिहिंसेति जिनागमस्य संक्षेपः ॥
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जिनागम का संक्षेपतः सार यही है कि रागादि भावों का प्रगट होना ही हिंसा है उनका उच्छिन्न हो जाना अहिंसा | कषाय (रागादिवश) स्व-पर के भाव और द्रव्य प्राण का घात करना हिंसा है। इस हिंसा के चार रूप हैं 1. स्वभावहिंसा, 2. परभावहिंसा, 3. स्वद्रव्यहिंसा, 4. परद्रव्यहिंसा । आपाततः रागद्वेष ही हिंसा का मूल हेतु है। साधक दोनों पर बल देता है। भीतर अनासक्ति हो तो बाह्य परिग्रह अपरिग्रह है। इसका तात्पर्य यह नहीं कि परिग्रह भावों को प्रभावित नहीं करता । छद्यस्थ / गृहस्थ परिग्रह से प्रभावित होता हुआ देखा जाता है। अपरिपक्व बुद्धि अनासक्ति का अभिनय करता है परिपक्व बुद्ध अनासक्त भाव से स्व-भाव की रक्षा करने में सन्नद्ध रहता है। इसलिए साधक को अन्तर्बाह्य दोनों दृष्टि से साधना करनी पड़ती है।
अतः साधक के लिए पहली शर्त है सम्यग्दृष्टि बनना । देशचरित्र को धारण करते ही वह पचमगुणस्थानवर्ती हो जाता है। सकलचारित्र धारण करते ही छठे गुणस्थान पर पहुँच जाता है। इन तीनों प्रथम पचम-षष्ठ गुणस्थान बाला जीव परिणामों की विशुद्धि से च्युत होने पर दूसरे तीसरे गुणस्थान को प्राप्त होते हैं और परिणामों की विशुद्धि तथा चारित्र की वृद्धि होने पर सातवें से लेकर ऊपर के गुणस्थानो की ओर बढ़ा जाता है। प्रथम, चौथे, पांचवे और तेरहवें गुणस्थान का काल अधिक है, शेष का काल कम है। इस सम्पूर्ण साधना को अहिंसा की साधना का नाम दिया जा सकता है। आचारण में अहिंसा के दो रूप हैं - सयम और तप । संयम से कर्मपुद्गलों का सवरण तथा तप से सचित कर्मो की निर्जरा या क्षय होता है। इस प्रकार आत्मा निरावरण होकर आत्मस्वरूप मे प्रतिष्ठित हो जाती है।
निष्कर्ष रूप में रत्नत्रय की आराधना का तात्पर्य यह है कि सर्वप्रथम जीवाजीवादि सप्त तत्त्वों में श्रद्धा करे । यह श्रद्धा नैसर्गिक हो सकती है अथवा अधिगमज - पर जैसे भी हो श्रद्धावान् बने । तत्पश्चात् श्रद्धागोचर तत्त्वों का अभ्यास करे तदनन्तर यथाशक्ति श्रावकोचित या मुनिव्रत धारण करना चाहिए। यह निश्चित है कि बिना चारित्र धारण किए सिद्धत्व प्राप्त नहीं किया जा सकता । अनासक्ति को दृढ़ करने के लिए तत्त्वाभ्यास या सम्यग्ज्ञान अपेक्षित है। ज्ञान का फल ही है - हेय-उपादेयबुद्धि का जागृत होना, इससे अनासक्ति परिपुष्ट होती है। इस प्रकार साधक जितना विषयों से पराङ्मुख होगा उतना ही आत्मोन्मुख होगा। जैसे-जैसे आत्मचिन्तन में वृद्धि होती है वैसे-वैसे आत्मानुभूति होने लगती है और संसार की स्थिति उसे नीरस लगने लगती है। जैसे ही आत्मशक्ति में वृद्धि होने लगती है, जीवन शान्ति की ओर बढ़ने लगता है, इस ध्यान और समाधि में जो सुख प्राप्त होता है वह वचनातीत है, अनिर्वचनीय है । बात्मा से परमात्मा बनने का यही क्रम है।
इस प्रकार रत्नत्रय असिद्ध दशा में मार्ग रूप है, साधन रूप है, आत्मा की ही परिणति रूप है। सिद्धदशा में आत्मा की परिणति शक्ति रूप है। तत्त्वार्थसूत्र सिद्ध बनने का नियामक रूप ग्रन्थ है जिसकी विस्तृत व्याख्यायें परवर्ती आचार्यो ने की है। सर्वार्थसिद्धि तत्वार्थराजवार्तिक, तत्वार्थश्लोकवार्तिकालंकार जैसे महनीय ग्रन्थों का प्रणयन तत्त्वार्थसूत्र आधार पर ही हुआ है।"