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'मो-सिद्ध अवस्था की स्थिति का निदर्शन करता है । मध्यवर्ती अध्यायों में जीव-अजीव के सम्मिलन से आसवबन्ध-संवर-निर्जरा तत्त्वों का सुथटित विवेचन हुआ है।
सिद्धावस्था प्राप्त करने के लिए साधक को किस प्रकार आचरण करना चाहिए उसकी जीवन चर्या कैसी हो आदि का विवेचन भी तत्त्वार्थसूत्र का प्रतिपाद्य है।
___ साधक निरन्तर बढ़ने का प्रयास करता है इसी क्रम में उसके भावों में निरन्तर शुद्धि होती है। मोक्षमार्ग में इसी निरन्तर विशुद्धि को गुणस्थानों के माध्यम से समझा जा सकता है - ये 14 सोपान हैं - मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र, अविरतसम्यग्दृष्टि (संशयात्मक स्थिति के विनष्ट होने पर सम्यक् श्रद्धा का उदय), देशविरति, प्रमत्तविरति, अप्रमत्तविरति, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसाम्पराय, उपशान्तमोह, क्षीणमोह (मोहनीय कर्म क्षय से उत्पन्न दशा), सयोगकेवलि (साधक का अनन्तज्ञान तथा अनन्त सुख से देदीप्यमान हो जाना), अयोगकेवलि (अन्तिमदशा)। अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तवीर्य और अनन्तसुख से परिपूर्ण आत्मा स्व-स्वरूप में स्थित हो जाती है। यही चारित्र की अन्तिम परिणति है। तत्त्वत: चारित्र आत्मा का स्वरूप ही है, अत: उसकी अभिव्यक्ति और परिपूर्णता सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानपूर्वक होती
इसी चारित्रगत स्वभाव की अभिव्यक्ति के लिए अणुव्रत और महाव्रतों का उल्लेख है - अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह | रागद्वेष के कारण - हिंसादिक पॉच पाप होते हैं। हिंसादिक कार्य प्रमादपरिणति मूल हैं। इसीलिए तत्स्वार्थसूत्र में प्रमत्तयोगात्याणव्यपरोपणं हिसा' के रूप मे हिसादिक पाप परिभाषित है। इन पांच पापों से विरति साध्य है। यह दो प्रकार का है - मर्वदशविरति तथा एकदेशविरति । यावज्जीवन के लिए पंच पापों का सर्वथा त्याग सकलचारित्र और उनका एकदेश त्याग देशचारित्र है। सर्वदश का त्यागी मुनि होता है तो एकदेश का त्यामी श्रावक या गहस्थ श्रावकों के बारहव्रत पच अणुव्रत, तीन गुणव्रत तथा चार शिक्षाव्रत । एकदेशविरति से सर्वदशविरति की ओर उन्मुख हुआ जाता है। क्रमश: साधक श्रावक माध्यस्थभाव से सम्पन्न हो उठता है।
पंच महाव्रत पांच महापापों के निरोध रूप है। वस्तुत: गणना में पांच पाप गिनाये गये हैं, परन्तु ये पाचों हिंसा रूप ही है। एक प्रकार से हिंसा, झूठ,चोरी, कुशील और परिग्रह एक दुश्चक्र है - हिंसा की परिणति परिग्रह में और परिग्रह की परिणति हिंसा में होती है। जैन परम्परा में परिग्रह को दुःख का मूल माना गया है और इसीलिए निर्ग्रन्थ चर्या की प्रतिष्ठा का कारण भी अपरिग्रही होना है। त्याग की प्रतिष्ठा भी इसी अपरिग्रहीवृत्ति के कारण होती है। हिंसा-अहिंसा की जितनी सूक्ष्म व्याख्या जैन परम्परा में है अन्यत्र नही । अहिसा का सिरमौर होना उसकी विधायकता है। हिंसा का निषेध मात्र आचरण में ही नहीं बल्कि वैचारिक धरातल पर भी होनी चाहिए। अहिंसा अनेकान्त दर्शन का परिचायक है। समग्रदृष्टि से जैनधर्म-दर्शन आचार और विचार मे अहिंसा की प्रतिष्ठा करता है। । हिंसा की निवृत्ति- रागद्वेष की निवृत्ति है। वीतरागी चर्या अप्रमत्त होने से अहिंसक है। जो रागद्वेष पर विजय प्राप्त कर लेता है वस्तुतः वही जिन है। आत्मपरिणाम को न संभाल पाना भी हिंसा है। आचार्य अमृतचन्द्र का कश्यम दृष्टव्य है
मात्मपरिणामसिनहेतुत्वामीसितत् ।
अमृतवचनादिकेवलमुदाय शिवबोधाव ।। पु. लि. . . .मात्मा के शुद्धोपयोग रूप परिणामों के घात करने के कारण असत्यवचनादि सभी हिसात्मक हैं। असत्यादि का नस्पबुद्धिवालों को समझाने के लिए हैं। आचार्य अमतचन्द्र का निम्न कन मी मननीय है Thi"PTER