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सम्यक् निपाल शब्द है, जिसका अर्थ होता है प्रशंसा। कभी-कभी मिथ्या या असम्यक् के विरोध में भी इसका प्रयोग होता है । अतः सम्यक् विशेषण विशेषणों में सम्भावित मिथ्यात्व की निवृत्तिपूर्वक प्रशस्तता का अभ्यर्हता का बोतक भी है। 'सम्यगिष्टार्थतस्वयो:' के आलोक में सम्यक् शब्द का अर्थ इष्टार्थ अथवा तत्व भी है । निपात शब्द अनेकार्थक होते हैं। अतः प्रसंगानुसार प्रशस्त वा तत्त्वदर्शन भी लिया जा सकता है।
'दर्शन' शब्द दर्शनभाव या क्रिया परक तो है ही, दर्शन साधन-परक तथा दर्शन कर्त्ता परक भी है। अर्थात् दर्शन क्रिया तो दर्शन है ही, वह आत्मशक्ति का दर्शन भी है, जिस रूप में आत्मा परिणत होकर दर्शन का कारण बनती है। स्वयं दर्शन आत्मस्वभाव होने से वह कर्ता आत्मा से अभिन्न भी है। तात्पर्य यह है कि तत्वत: दर्शन आत्मा से मित्र नहीं है फिर भी स्वभाव की उपलब्धि के निमित्त जब आत्मा और दर्शन में किञ्चिद् भेद माना जाता है तब उसे भाव और कारण रूप भी माना जाता है।
दर्शन शब्द 'दृशि धातु' से निष्यत्र है । यद्यपि भावपरक मानने पर 'देखना' 'अवलोकन करना' के ही अर्थ में उचित प्रतीत होता है, परन्तु धातुयें अनेकार्थक होती है अतः यहाँ उसका अर्थ श्रद्धान ही उपयुक्त है । इसीलिए आचार्य उमास्वामी ने उसका अर्थ तत्त्वार्थश्रद्धान ही किया है । यों तो दर्शन अर्थ श्रद्धान ही है, परन्तु कोई अतत्त्वार्थ को भी श्रद्धा का विषय न बना ले, इसीलिए तत्त्वार्थ का स्पष्ट प्रयोग किया गया है। तत्व और अर्थ दो पदों से तत्त्वार्थ बना है सत्य का अर्थ है तत् का धर्म । भावमात्र जिस धर्म या रूप के कारण है, वही रूप है तत्त्व । अर्थ का अर्थ है ज्ञेय । इस प्रकार तत्वार्थ का अर्थ है - जो पदार्थ जिस रूप में है, उसका उसी रूप से ग्रहण । निष्पत्ति: तत्त्व रूप से प्रसिद्ध अर्थों का श्रद्धान हो तत्व श्रद्धान है।
यह सम्यग्दर्शन सराग भी होता है और वीतराग भी। पहला साधन है तो दूसरा साध्य । प्रशम, संवेग, अनुकम्पा भीर आस्तिक्य से अभिव्यञ्जित सराग सम्यग्दर्शन है। रागादि की तीव्रता का न होना प्रशम, संसार से भीतरूप परिणाम होना संवेग । सभी प्राणियों में दयाभाव अनुकम्पा और जीवादि पदार्थ सत् स्वरूप है, लोक अनादिनिधन है । निमित्तनैमित्तिक भाव होते हुए भी अपने परिणामानुसार सबका परिणमन स्वयं होता है, आगम एवं सद्गुरु के उपदेशानुसार प्राञ्जल बुद्धि होना आस्तिक्य भाव है। आस्तिक्य भाव स्व-संवेद्य होने पर भी अभिव्यञ्जक है। यद्यपि सम्यक्त्व अत्यन्त सूक्ष्मभाव है और वचनगम्य नहीं है फिर भी उसकी अभिव्यक्तिय इन गुणों से होती है। प्रशमादि गुण प्रत्यक्षभासित होते हैं। वीतराग सम्यग्दर्शन आत्मविशुद्धि रूप है। उभयविध सम्यग्दर्शन का अन्तरंग कारण एक है मोहनीयकर्म की सप्त प्रकृतियों का उपशम, क्षय, क्षयोपशम । देशनालब्धि व काललब्धि आदि बाह्य कारण हैं तथा भावात्मक होने से करण लब्धि और शुभ लेश्या आदि अन्तरंग कारण हैं।
उभयविध सम्यग्दर्शन स्वभावतः (निसर्गज) तथा परोपदेशवश (अधिगमज) होते हैं। अन्तरंग कारण तो समान हैं- (मोहनीयकर्म सात (अनन्तानुबन्धी क्रोध-मान- माया-लोभ- मिथ्यात्व सम्यग्मिथ्यात्व - सम्यक्त्व) प्रकृतियों का उपशम-क्षय-क्षयोपशम) । सम्यक्त्व प्रगट होने में द्रव्य-क्षेत्र काल भाव निमित्त होते हैं। जिनबिम्ब-द्रव्य, समवसरण - क्षेत्र अर्द्धपुद्गलपरावर्तन - काल अधःप्रवृत्तकरणादि भाव हैं। जातिस्मरण से भी निसर्गज सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होती है। तत्वार्यसूत्र में अधिगमज सम्यग्दर्शन के दो निमित्त निर्देशित किए हैं प्रमाण और नय। क्षायिक, औपशमिक, क्षायोपशमिक भेव से श्री सम्यग्दर्शन का निरूपण है। जीव के भावों का निदर्शन करते समय इसका उल्लेख किया गया है।
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सूत्र तत्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् 11/2
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