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मद्यपि आचार्य हरिभद्र ने सिद्धसेनगणी की वृत्ति से अपनी इस टीका को उपकृत किया है। किन्तु उसके बाद भी उनकी इस रचना में उनके व्यक्तित्व की छाप पृथक् दिखाई देती है। यथा -
सूत्रे १/३ की टीका का की गई है कि जब सभी जीव अनादि से हैं और उनके कर्म भी अनादिकालीन हैं तब उनको सम्यग्दर्शन अलग-अलग काल में क्यों होता है ? इसके समाधान में लिखा है- सम्यग्दर्शन का लाभ विशिष्ट काल, स्वभाव, नियति, कर्म और पुरुषकार रूप सामग्री से होता है और वह सामग्री प्रत्येक जीव की भिन्न-भिन्न होती है। इसी प्रसंग में सिद्धसेन दिवाकर के सन्मतितर्क की कारिका भी उद्धृत की गयी है। यह प्रसंग सिद्धसेनीयवृत्ति में अनुपलब्ध है।
इसी प्रकार भगवान केवली के ज्ञानोपयोग एवं दर्शनोपयोग के विषय में भी प्रसंगोपात्त चर्चा की गयी है जी परम्परा से कुछ हटकर है।
इस छोटी-सी वृत्ति में अनेक विशेषताएँ हैं। चूंकि आचार्य हरिभद्र जैन आगमों के मर्मज्ञ एवं साहित्यविज्ञ अध्येता थे। इससे उनकी कृति में इस प्रकार की अपेक्षा होना ही स्वाभाविक है । उनकी शैली भी उनके ज्ञान से समान ही असाधारण है । अन्ततः यह कहा जा सकता है कि कृति लघु होने पर भी यथेष्ट बोधप्रद एवं उपयोगी है।
अन्य अनुपलब्ध टीकाएं
इन वृत्तियों के अतिरिक्त भी कतिपय वृत्तियों जानकारी उपलब्ध होती है परन्तु वे रचनाएं अद्यावधि अनुपलब्ध ही हैं। अनुपलब्ध रचनाओं में दो प्रमुख रचनाओं के उल्लेख पं. कैलाशचन्द्र जी ने अपने जैन साहित्य का इतिहास में किये हैं। उनमें प्रथम है पं. योगदेव कृत। उनकी सूचनानुसार यह टीका भी सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थवार्तिक की उपजीवी है । भाषा सुस्पष्ट एवं सुबोधगम्य है। आपकी सूचना से इसका नाम भी सुखबोधवृत्ति ही ज्ञात होता है। कर्त्ता के समय के विषय में कोई निश्चित जानकारी नहीं मिलती।
दूसरी अन्य टीका है तत्त्वार्यरत्नप्रभाकर। उनकी सूचनानुसार इसके आरम्भ में इसके प्रणयन का कर्त्ता एवं निमित्त आदि की चर्चा है। तदनुसार इसके कर्त्ता प्रभाचन्द नामक भट्टारक हैं, जो काष्ठासंघीय सुरेन्द्रकीर्ति, हेमकीर्ति आदि की परम्परा के हैं।
इस ग्रन्थ की विशेषता के विषय में पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री जी कहते हैं कि यह टीका संस्कृत और हिन्दी के मिश्रण रूप में उपलब्ध है । अथवा हिन्दी का भाग ही अधिक है। यथा 'एवं गुण विराजमानं जीवतस्त्वं, व्यवहारी प्राण दश, पञ्चेन्द्रिय प्राण पंच, मन वचन काय प्राण तीन, उस्वास निश्वास प्राण एक, आव प्राण एक, एवं व्यवहार नय प्राण दश भवति, निश्चय प्राण चार चत्वारि भवन्ति । "
एकत्र एक अन्य टीका का उल्लेख करते हुए शास्त्री जी कहते हैं कि भट्टारक राजेन्द्रमौली कृत 'अर्हत्सूत्रवृत्ति' भी तत्त्वार्थसूत्र पर लिखी गयी है। जिसका समय एवं परिचय अज्ञात ही है।
१. भाग २, पृ. ३६६-७,
२. बही, पृ. ३६७,
३. वही, पृ. २३२,