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तस्वार्थसूल-निक / XXII
ध्यान से सुन रहे हैं। ध्यान से काम करो। ध्यान से चलो। इसका मतलब सावधान होकर चलो, जागरूक होकर के चलो, अपने उपयोग को केन्द्रित करके चलो। यह ध्यान तो निरन्तर चलता है, पर यह ध्यान सहज, निष्प्रयास, अबुद्धिपूर्वक होता है।
अशुभ से अपने चित्त को मोड़कर शुभ में स्थिर करने का नाम ध्यान है। इसी में ही चित्त की व्यग्रता नष्ट होती है 'एकाग्रचिन्तनिरोधो ध्यानम्' तो बहुत उत्कृष्ट ध्यान की बात है, लेकिन धर्मध्यान क्या है ? आज के युग में धर्मध्यान किस तरीके से धारित किया जा सकता है, इन बातों का समायोजन हो तो इनकी उपयोगिता और कई गुनी बढ़ सकेगी, ऐसा मेरा विश्वास है ।
तत्वार्थसूत्र के मौलिक अर्थों पर
वार्य श्री विद्यासागर जी एक मनीषी चिन्तक व साधक हैं। उनकी आत्मा से जो कुछ उद्भूत होता है वह उनके स्वरों में अभिव्यक्त होता है। प्रतिवर्ष पूज्य आचार्य महाराज पर्युषणपर्व के दिनो में नये-नये रहस्य आगम और सन्दर्भ के साथ सुनाते हैं।
पूज्य आचार्य श्री ने तस्वार्थसूत्र मुझे अकेले ही पढ़ाया था । जैनधर्म के शिक्षण की शुरूआत सीधे तत्त्वार्थसूत्र से हुई। मैंने 'प्रभु पतित पावन.... ..' की विनती भी मुनि अवस्था में सीखी। यह सुनकर आप सभी को आश्चर्य हो सकता है। जिस दिन मेरा संघ में प्रवेश हुआ और आचार्य श्री के पास आशीर्वाद लेने पहुॅचा, उन्होंने तुरन्त 'तत्त्वार्थसूत्र' ग्रन्थ मंगवाया और सम्बोधते हुए कहा कि यदि इसे कण्ठस्थ कर लोगे, तो सारे जैन वाङ्मय को हृदयगम करने में कभी कठिनाई नहीं हो पायेगी। इसमें समस्त जैन वाङ्मय का सार समाहित है। पहले दिन चार सूत्र अर्थ सहित पढाये वह भी मूलसूत्र वाली पुस्तक से। जैसा मैंने सुना दूसरे दिन जैसा का तैसा उन्हें सुना दिया। प्रतिवर्ष, कोई न कोई नया विषय उनके द्वारा तत्वार्थसूत्र के सन्दर्भ में निकलता रहता है। आचार्य श्री केवल उसका अध्ययन ही नही करते, मनन और चिन्तन करते हैं। अतएव उनकी मनीषा से जो कुछ उपलब्ध होता है, वह सदैव प्रवचनों के माध्यम 'उपलब्ध कर दिया करते हैं। आप सबका ध्यान तत्वार्थसूत्र के दूसरे अध्याय के प्रथम सूत्र पर आकर्षित करना चाहूँगा। सूत्र है -
'avattearest भावी मिचश्च जीवस्य स्वतस्त्वमौदयिकपारिणामिकौ च ॥'
इस सूत्र की व्याख्या आचार्य महाराज करते हैं, जो किसी टीकाकार ने नहीं की। 'औपशमिकक्षायिकौ में जो विभक्ति तोड़ी हैं उसका केवल मतलब यह है कि औपशमिक और क्षायिक भाव केवल सम्यग्दृष्टि भव्यो को होता है, मिथ्यादृष्टियों को नहीं । इसको हम केवल भव्य से न जोड़े, मिश्रश्च भाव है वह सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि तथा भव्य और अभव्य दोनों प्रकार के जीवों को होता है।'
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'औदयिक और पारिणामिका' के लिये जो विशेष चिन्तन दिया तत्त्वमौदयिकपारिणामिकौ च' अर्थात् औदयिक और पारिणामिक इन दोनों को एक विभक्ति में रखा है, इसका यही प्रयोजन है कि ये दोनों भाव समान रूप से सभी ससारी जीवों के पाये जाते हैं। 'च' शब्द से अन्य असाधारण भावों का समावेश कर लेना चाहिये, जैसा कि अन्य टीकाकारों ने समावेश करने का निर्देश दिया है।
के कारण एक कापोह
जैन आगम में वेदों का जो भी विवेचन है। वह मुख्य रूप से भाव वेद से सम्बद्ध है। द्रव्यवेदों के आसव के कारणों