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का एक सूत्रपाठ निर्धारित किया जा चुका था। आचार्य सिद्धसेनगणि और आचार्य हरिभद्र ने भी तत्त्वार्थाधिगम भाष्यकार द्वारा उल्लिखित पाठ न स्वीकार करते हुए उसके उत्तरार्द्ध से सर्व पद क्यों छोड़ दिया है। यदि 'सर्व' पद की 'द्रव्य' पद के विशेषण के रूप में आवश्यकता थी तो उन्होंने ऐसा करते समय ध्यान क्यों नहीं रखा ? यह एक ऐसा प्रश्न है, जिसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। बहुत सम्भव है कि उन्होंन प्राचीन सूत्रपाठ की परम्परा को ध्यान में रखकर ही प्रथम अध्याय के 20 वें सूत्र के भाष्य में उसे दिया, जो सर्वार्थसिद्धि में उपलब्ध था। इससे विदित होता है कि तत्त्वार्थाधिगमभाष्य लिखते समय वाचक उमास्वाति के समक्ष सर्वार्थसिद्धि अथवा उसमें मान्य सूत्रपाठ रहा है।
अर्थविकास की दृष्टि से विचार करने पर प्रतीत होता है कि तत्त्वार्थाधिगम भाष्य को सर्वार्थसिद्धि के बाद लिखा गया है। काल के उपकारप्रकरण में सर्वार्थसिद्धि में पात्व और अपरत्व ये दो ही भेद किये गये हैं। जबकि तत्त्वार्थाधिगम भाष्य में उसके तीन भेद उपलब्ध होते हैं। अत एव प्रज्ञाचक्ष पं. सुखलाल जी का यह अभिमत, कि तत्त्व तस्वार्थाधिगम भाष्यकार एक ही व्यक्ति हैं, समीचीन प्रतीत नहीं होता।
तस्वार्थसूत्र के दो सूत्रपाठ हो जाने पर भी ऐसे अधिकतर सूत्र हैं, जो दोनों परम्पराओं में मान्य हैं और उनमें भी कुछ ऐसे सूत्र अपने मूल रूप में उपलब्ध हैं, जिनके रचयिता की स्थिति पर प्रकाश पड़ता है। पण्डित फूलचन्द्र जी शास्त्री ने 1. तीर्थकरप्रकृति के बन्ध के कारणों का प्रतिपादक सूत्र, 2. बाईस परीषहों का प्रतिपादक सूत्र, 3. केवलिजिन के 11 परीषहों के सद्भाव का प्रतिपादक सूत्र और 4. एक जीव के एक साथ परीषहों का संख्याबोधक सूत्र, इन चार सूत्रों को उपस्थित कर तत्वार्थसूत्र और तत्त्वार्थाधिगम भाष्य के रचयिताओं को भिन्न-भिन्न व्यक्ति सिद्ध किया है।'
पण्डित फूलचन्द्र जी ने 'उमास्वातिवाचकस्वोपज्ञसूत्रभाष्ये' पद के पण्डित सुखलाल सघवी द्वारा दिये गये अर्थ की समीक्षा करते हुए लिखा है - "पण्डित जी, भाष्यकार और सूत्रकार एक ही व्यक्ति है, इस पक्ष में उसका अर्थ लगाने का प्रयत्न करते हैं, किन्तु इस पद का सीधा अर्थ है - उमास्वातिवाचक द्वारा बनाया हुआ सूत्रभाष्य । यहाँ 'उमास्वातिबाचकोपज' पद का सम्बन्ध सूत्र से न होकर उसके भाष्य से है। दूसरा प्रमाण पण्डितजी ने 9वें अध्याय के 22 वें सत्र की सिद्धसेनीय टीका उपस्थित कर दिया है - यह प्रमाण भी सन्देहास्पद है, क्योंकि सिद्धसेनगणि की टीका की जो प्राचीन प्रतियाँ उपलब्ध होती हैं, उनमें 'स्वकृतसूत्रसग्निवेशमाश्रित्योक्तम्' पाठ के स्थान में 'कृतस्तत्र सूत्रसन्निवेशमाश्रित्योक्तम्' पाठ भी उपलब्ध होता है। बहुत सम्भव है कि किसी लिपिकार ने तत्वार्थसूत्र का वाचक उमास्वाति कर्तत्व दिखलाने के अभिप्राय से 'कृतस्तत्र' का संशोधन कर 'स्वकृत' पाठ बनाया हो और बाद में यह पाठ चल पड़ा हो।"२
____ अतः तत्त्वार्थ अथवा तत्त्वार्थसूत्र और तत्त्वार्थाधिगमभाष्य दो पृथक्-पृथक् रचनाएं हैं। तत्त्वार्थ सर्वार्थसिद्धि से पूर्ववर्ती और तत्वार्थाधिगमभाष्य उससे उत्तरवर्ती रचना है। अतएव तत्वार्थाधिगमभाष्य के कर्ता वाचक उमास्वाति रहे होगें, पर मूल तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता गृद्धपिच्छाचार्य हैं । इस नाम का उल्लेख नौ वीं शताब्दी के आचार्य वीरसेन और विद्यानन्द जैसे आचार्यों के साहित्य में मिलता है। उत्तरकाल में अभिलेखों और ग्रन्थों में उमास्वामी और उमास्वाति इन दो नामों से भी इनका उल्लेख किया गया है। लगभग इसी समय श्वेताम्बर सम्प्रदाय में हए सिद्धसेनगणि के उल्लेखों से १. सर्वार्थसिद्धि, प्रस्तावना, पृ. 65-8. २.वही, प. 58.