Book Title: Tattvartha Kartutatnmat Nirnay
Author(s): Sagranandsuri
Publisher: Rushabhdev Kesarimal Jain Shwetambar Sanstha

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Page 11
________________ १९ (२६) 'मतिश्रुतावधिमन पर्यामकेवलानि ज्ञानं' ऐसा कह कर जो 'तत् प्रमाणे' ऐसा सूत्र कहा वह भी इनकार इन्द्रियार्थसंनिकर्ष आदिको प्रमाण मानते हैं वा श्रामाण्य भी जिस परसे मानते हैं यह योग्य नहीं है ऐसा दिखानेके लिए है । (७) ' कृत्स्नकर्मगो मोक्षः' यह सूत्र भी अममय या ज्ञानादिविच्छेदमय जो मोक्ष मानते हैं उनको सत्यपदार्थसमझानेके लिये है । यह सब बयान इतरदर्शनकारोंकी अपेक्षाका दिया है, इसका मतलब यह है कि श्वेतांबराकीही यह मान्यता है कि जिस जमाने में जीव जिसतरहसे बोध पावे और भावीतराग के मार्ग में स्थिर होवे वैसा प्रयत्न करना चाहिये, इससे भी यह शास्त्र घेतानाही है ऐसा समझा जाय । आखिर में सब श्वेतांबर व दिगंबरमायाको सत्यमार्गपर स्थिर रहनेकी और वीतरागप्रणीत मार्ग अखत्यार करने की संभावना करते हैं, और लेखको समाप्त करते हैं । वीर सं. २४६३आपका ५ Jain Education International For Personal & Private Use Only आनन्दसागर www.jainelibrary.org

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