Book Title: Tattvartha Kartutatnmat Nirnay
Author(s): Sagranandsuri
Publisher: Rushabhdev Kesarimal Jain Shwetambar Sanstha

View full book text
Previous | Next

Page 9
________________ (१८, तीसरे अध्यायमें कर्मभूमिके भेद दिखाते जो 'अन्यत्र' करके देवकुरु उत्तरकुरुका वर्जन करके कर्म अकर्म भूमिका बयान दर्ज किया, वह असंख्यद्वीपसमुद्रादि वर्णनको शैलीकी तरह अलौकिक है। (१९) पांचवें अध्यायमें अजीवकायसे आरंभ कर जो धर्मास्ति. कायादिका प्रकरण लिया है वह इतरदर्शनकारोंने जो आकाशका आधिकरणके हिसाबसे वर्णन किया था उसका ही प्रतिबिंब है, परंतु वस्तुएँ अलौकिक हैं. (२०) उत्पादव्ययादिका निरूपण इतरदर्शनोंमें स्वममेंभी नहीं था, और हो. सक्ताभी नहीं. (२१) "कालश्वेत्येके" यह पांच अध्यायका सूत्रही अन्यदर्शन कारोंको स्याद्वाद दिखाने के साथ इस तत्वार्थसूत्रका व्यापित्व दिखलाता है। ... (२२) इधर तत्वविभागसे आप्रवादिके प्रकरण हैं, और इसीसेही कितनेक छोटे और कितनेक बडे भी होगए हैं, यह दर्शनकारोंके सूत्रोंकी अनुकरणीयता ही दिखाता है। . (२३) देव निर्ग्रन्थ और सिद्ध के लिये स्थिति और क्षेत्रादिका विकल्प करके जो निरूपण करनेका दिखाया चहभी नकारोंकी अनुकृति है। (२५) माखूम, होता है कि अन्यमजहबवालोंने महादेवकी अष्टमूर्तिक हिसाबसे अष्टाध्यायीका विभाग . रक्खा, B Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 ... 180