Book Title: Tattvartha Kartutatnmat Nirnay Author(s): Sagranandsuri Publisher: Rushabhdev Kesarimal Jain Shwetambar Sanstha View full book textPage 8
________________ नहीं है तो फिर वे लोग ज्ञान और रोकनेवाले कर्मोको कहां से मंजूर करें ? (१६) अन्यदर्शनकारोंने स्थूल और लैंगिक ऐसे शरीर माने हैं, तब जैनदर्शन में पृथ्वीसे मनुष्यतकको औदारिक, देव, नारकको पूर्वभव के किये हुवे कार्योंसे लाखों गुणा सुख दुःख भुगतने के लिये काबिल ऐसा वैक्रिय२ महायोगके योग्य आहारकर ये तीन शरीर के भेद स्थूलके दिखाये और गर्भसे लगाकर यावज्जीवन खुराकका पाक करके रसादि करनेवाला तैजस और आखिर में कर्मका विकार या समूहरूप कार्मण शरीर ऐसे पांच तरहके शरीर दिखाये हैं (१७) अन्यमजहबवालोंने कर्मोंको ही पौङ्गलिक नहीं माने हैं, तो फिर आयुष्यको पौगलिक माने ही कैसे हैं और आयुष्यको पौगलिक ही नहीं माने तो फिर उपक्रम आयुष्यको लगते हैं और आयुष्यका अपवर्त्तन होता है वैसा कैसे मान सके ?, और ऐसा न मानें तो अनपवर्त्तनीय विभाग तो मानेही कहाँ से १, वे लोक उपक्रम और अपवर्धन न माने ऐसा कभीभी नहीं बनेगा, क्योंकि कोई भी मनुष्य क्या अनि हथीयारआदिसे नहीं डरे ऐसा बनता है ? हरमीज नहीं, तो फिर मानना ही पडेगा कि यही उपक्रम और अपवर्तनकी सिद्धि है. 2 T • 41 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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